इस शुक्रवार को रिलीज हुई यह फिल्म बॉलिवुड की दूसरी फिल्मों से टोटली डिफरेंट है। कई फिल्म समारोहों में जमकर तारीफ और अवॉर्ड बटोरने के बाद भी जब पिछले करीब दो सालों से डिब्बे में बंद पड़ी इस फिल्म की प्रॉडक्शन कंपनी के पास इसे रिलीज करने के लिए पैसे का इंतजाम नहीं हुआ, तब पंद्रह देशों से ढाई सौ लोगों ने फिल्म रिलीज करने के लिए प्रड्यूसर कंपनी को अपनी ओर से करीब पचास लाख रूपये की रकम भेजी, तब जाकर यह फिल्म रिलीज हो पाई।
इतना ही नहीं, बॉलिवुड के नामी स्टार्स और फिल्म मेकर्स ने जब इस फिल्म की जमकर तारीफें की, तब जाकर प्रड्यूसर कंपनी ने फिल्म को चुनिंदा मल्टिप्लेक्सों पर इक्का-दुक्का शोज में रिलीज करने की हिम्मत बटोरी। अगर आप सिंगर यसूदास के फैन है तो इस फिल्म में आप करीब बीस साल बाद उनकी आवाज सुन सकते हैं।
कहानी: गोवा के एक छोटे से गांव में एक अधेड़ उम्र महिला (फारुख जफर) अपने घर पर अकेली रहतीं हैं। इनका बेटा अपनी बीवी और बच्चों के साथ मुंबई में रहता है। गांव से वह बार-बार अपने बेटे और पोता-पोती के लिए अपने हाथ से बने बेसन के लड्डू कोरियर करती हैं, लेकिन उनकी बहू (पूर्वा पराग) लेटर और लड्डू अपने पति और बच्चों तक नहीं पहुंचने देती है। इस बीच अचानक एक दिन जब बच्चों को खबर मिलती है कि उनकी दादी मां गोवा में हैं। यह पता चलते ही दीया (सारा नहर) और प्रखर (प्रखर मोर्चले) बिना किसी को बताए अपनी दादी से मिलने गोवा की और चल पड़ते हैं। आखिरकार दोनों गोवा पहुंचते हैं, जहां दोनों अपनी दादी को अपने साथ मुंबई चलने के लिए कहते हैं।
ऐक्टिंग: दादी के किरदार में स्वदेश और पीपली लाइव में नजर आ चुकीं एक्ट्रेस फारुख जफर ने एक बार फिर अपने किरदार को जीवंत किया है। बहू के रोल में पूर्वा पराग ने साबित किया है कि उन्हें ऐक्टिंग की अच्छी समझ है। दादी को लेने गांव पहुंचे पोता-पोती के किरदार में पूर्वा और प्रखर ने अच्छी ऐक्टिंग की है।
निर्देशन: डायरेक्टर प्रवीण मोर्चले की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने एक ऐसी कहानी पर काम किया जो दिल के तारों को छूती है, वर्ना बॉक्स आफिस पर कमाई की चाह में इंडस्ट्री के टॉप मेकर ऐसे सब्जेक्ट पर फिल्म बनाने से पल्ला झाड़ते है। बेशक , प्रवीण ने एक ऐसे सब्जेक्ट पर काम किया जो आजकल घर-घर की बात होती जा रही है, लेकिन बतौर निर्देशक प्रवीण इस इमोशनल कहानी से दर्शकों को पूरी तरह जोड़ नहीं पाते। चूंकि यह प्रवीण की पहली फिल्म है, इसलिए अनुभव की कमी का असर फिल्म पर पड़ा है। फिर भी प्रवीण ने शानदार कोशिश की है।
संगीत: फिल्म के बैकग्राउंड में बजने वाला गाने के बोल दिल को छू जाते हैं। फिल्म के सभी गानों में कोई ना कोई मेसेज देने की कोशिश की गई है, लेकिन किसी गाने में इतना दमखम नहीं जो हॉल से बाहर आने के बाद आपको याद रह सकें। फिर भई फिल्म में कोई गाना बेवजह नहीं है और हर गाना कहानी का जरूरी हिस्सा लगता है।
क्यों देंखे: अगर आप मुंबइया कमर्शल सिनेमा की भीड़ से दूर कोई अच्छी सी फिल्म देखना चाहते हैं, तो इस फिल्म को देखा जा सकता है। हालांकि यह फिल्म बहुत कम सिनेमाघरों में रिलीज हो पाई है, इसलिए इसे देखने के लिए आपको मशक्कत करनी पड़ सकती है।
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