कहानी
शर्माजी (ऋषि कपूर और परेश रावल) 58 साल के हैं। दिल्ली में रहते हैं। पत्नी का निधन हो चुका है। रिटायर हैं। शर्माजी को जिंदगी में अब आगे कोई मकसद चाहिए। खुद को व्यस्त रखना है। सिंगल फादर भी हैं। तय होता है कि शर्माजी अपने दबी हुई इच्छा को पूरा करेंगे। खाना पकाने का शौक है, अब उसे पूरा करेंगे। लेकिन क्या उनके जवान बेटे को यह सब पसंद आएगा? इस पुराने शौक और नए सपने के कारण शर्माजी जिस तरह से बदल रहे हैं, क्या उनके बेटे को यह सब कुबूल होगा? फिल्म इसी कहानी को मजेदार अंदाज में आगे बढ़ाती है।
रिव्यू
'या तो व्यस्त रहो या फिर व्यस्त होर मर जाओ'। रूटीन जिंदगी को हमेशा से कम आंका गया है। जबकि कभी-कभी जब ऐसा लगता है कि आगे अब कुछ नहीं बचा है, तब यह रूटीन वाली नौकरी और काम ही है, जो आपकी जिंदगी को आगे बढ़ाती है। 'द लंचबॉक्स' में इरफान का किरदार साजन याद होगा, उसकी कही बात भी याद होगी कि जिंदगी चलती रहती है। दिन धीरे-धीरे महीने बन जाते हैं और महीने धीरे-धीरे साल में बदल जाते हैं, क्योंकि वह पूरी शिद्दत से अपनी 9 से 5 की ड्यूटी करता रहता है। ये रूटीन ही है, जो आगे बढ़ाती है। शर्माजी की होम अप्लायंसेज वाली नौकरी भी ऐसी ही थी। उन्हें व्यस्त रखती थी। कई बार जिंदगी में व्यस्त रहना ही सबसे अधिक मायने रखता है। लेकिन रिटायरमेंट के बाद अब क्या?
शर्माजी को खाना पकाने से प्यार है। वॉट्सऐप ग्रुप और पाककला के इसी प्यार के कारण वह एक महिलाओं वाली किटी गैंग से मिलते हैं। जूही चावला इस गैंग की लीडर हैं। सोसाइटी को लेकर महिलाओं के इस गॉसिप गैंग में शर्माजी का मन रमने लगता है। उन्हें एक तरह की खुशी और सांत्वना का एहसास होता है। ये महिलाएं सोसाइटी के रुबते वाले वर्ग से हैं, लेकिन उनकी जिंदगी में भी एक उजड़ापन है। एक बहुत ही सरल और सहज कहानी के जरिए डायरेक्टर हितेश भाटिया हमें जिंदगी का स्वाद देते हैं। बढ़ती उम्र और पुरुष-महिला को लेकर जो रूढ़ियां हैं, उन पर हल्के-फुल्के अंदाज में ही ऐसे चोट करते हैं कि आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं।
रॉबर्ट डी नीरो और नैन्सी मेयर्स की 'द इंटर्न' हो या शूजीत सरकार की 'पीकू' को आप यहां अपवाद के तौर पर ले सकते हैं। क्योंकि अक्सर उम्र के एक पड़ाव के बाद बड़े हो चुके बच्चे अपने बुजुर्ग और परेशान माता-पिता के भाव को नहीं समझते। वह एहसान फरामोश हो जाते हैं। जबकि माता-पिता असल जिंदगी में त्याग और बलिदान का सबसे बड़ा प्रतीक होते हैं। जिंदगी कई बार एकतरफा भी हो जाती है। 'शर्माजी नमकीन' खुद से प्यार करने, अकेलेपन और सिंगल फादर होने के मायने पर बात करती है। यह फिल्म बड़ी चालाकी से 'बागबान' वाले नैरेटिव से अलग सोचने के लिए एक नया आयाम देती है।
यहां कोई विलन नहीं है। कभी-कभी आप खुद ही समस्या का कारण भी होते हैं और उसका समाधान भी। बीते कल में ऐसे कई बोझ हैं, जिसें इंसान ताउम्र पीठ पर ढोकर चलता रहता है। हितेश भाटिया का हीरो आत्म-दया में नहीं डूबता है। वह दयालु है, लेकिन दबाव में नहीं है। वह बिंदास है, एक पिता के तौर पर भी और इंसान के तौर पर भी। लेकिन वह कभी भी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करता। फिल्म के किरदार ऐसे हैं जिनसे आप जुड़ते हैं। वो आपको आपके घर के किसी सदस्य की याद दिला सकते हैं या आपके पड़ोस के किसी शख्स की।
फिल्म में दिल्ली के शानदार स्ट्रीट फूड्स (आलू टिक्की चाट, दही भल्ले) हैं। फिल्म एंटरटेनिंग है। हंसाती है और साथ ही आपका उत्साह भी बढ़ाती है। यह फिल्म न तो आपको कहीं बोर करती है और न ही किसी मौके पर ऐसा लगता है कि यह उपदेश दे रही है। हितेश की इस मायने में तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने अपने अधेड़ हीरो से दर्शकों को जोड़ने के लिए उसे हारा हुआ या पीड़ित नहीं दिखाया है। शकुन बत्रा की तरह ही हितेश भाटिया भी एक बच्चे और उसके माता-पिता डायनमिक्स को नए अंदाज में रखते हैं। हालांकि, उसमें कुछ खामियां जरूर हैं, लेकिन यही इस फिल्म का सबसे बड़ा अट्रैक्शन भी है। फिल्म बताती है कि भले ही परिवार में सदस्यों के बीच मतभेद हों, लेकिन इससे साथ नहीं छूटता।
'शर्माजी नमकीन' ऋषि कपूर की आखिरी फिल्म है। यह उनके निधन के बाद रिलीज हुई है। यकीन मानिए शर्माजी के किरदार में उनसे बेहतर कोई नहीं हो सकता। असल जिंदगी में भी अपनी फैमिली और फूड से प्यार करने वाले ऋषि साहब के लिए यह फिल्म कितनी सहज होगी, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। ऋषि कपूर के किरदारों में हमेशा एक ईमानदारी झलकती है। ऐसे जैसे वह किरदार उनकी आत्मा हो। असल जिंदगी में भी ऋषि कपूर बिंदास थे। फिर चाहे द ग्रेट राज कपूर और बेटे के तौर पर हों या रणबीर कपूर के पिता के तौर पर, ऋषि कपूर ने हमेशा एक साहस दिखाया है। 'शर्माजी नमकीन' की गिनती ऋषि कपूर की सबसे बेहतरीन फिल्मों में की जा सकती है। वह लाजवाब हैं। एक पल के लिए यह यकीन करना भी मुश्किल हो जाता है, जो हमें पर्दे पर हंसा रहा है वह अब इस दुनिया में नहीं है।
'शर्माजी नमकीन' हिंदुस्तान की पहली ऐसी फिल्म है, जिसमें एक ही किरदार को दो ऐक्टर्स ने प्ले किया है। ऋषि कपूर की तबीयत नासाज रहने लगी थी। बाद में उनका निधन हो गया। फिल्म अधूरी थी। हितेश भाटिया ने इंडस्ट्री के एक और दिग्गज परेश रावल को चुना। दिलचस्प है कि परेश रावल ने ऋषि कपूर के शर्माजी के किरदार को कॉपी नहीं किया। बल्कि अपने अंदाज में उसे निभाया है। लेकिन यह फिल्म पूरी तरह से ऋषि कपूर की है। पर्दे पर उनकी मुस्कान आपकी आंखों में आंसू ला देते हैं।
हमारे भारतीय माता-पिता आम तौर पर अपने बच्चों को ही सबसे बड़ी प्राथमिकता देते हैं। लेकिन क्या हो, अगर चीजें पलट जाएं। क्या होगा जब वह बच्चों से ज्यादा अपने बारे में सोचने लगेंगे? खुद के लिए फैसले लेंगे। क्या यह सेल्फ लव उन्हें सेल्फिश बना देगा? 'शर्माजी नमकीन' आपको यही सब सोचने का एक मौका देती है।
शर्माजी (ऋषि कपूर और परेश रावल) 58 साल के हैं। दिल्ली में रहते हैं। पत्नी का निधन हो चुका है। रिटायर हैं। शर्माजी को जिंदगी में अब आगे कोई मकसद चाहिए। खुद को व्यस्त रखना है। सिंगल फादर भी हैं। तय होता है कि शर्माजी अपने दबी हुई इच्छा को पूरा करेंगे। खाना पकाने का शौक है, अब उसे पूरा करेंगे। लेकिन क्या उनके जवान बेटे को यह सब पसंद आएगा? इस पुराने शौक और नए सपने के कारण शर्माजी जिस तरह से बदल रहे हैं, क्या उनके बेटे को यह सब कुबूल होगा? फिल्म इसी कहानी को मजेदार अंदाज में आगे बढ़ाती है।
रिव्यू
'या तो व्यस्त रहो या फिर व्यस्त होर मर जाओ'। रूटीन जिंदगी को हमेशा से कम आंका गया है। जबकि कभी-कभी जब ऐसा लगता है कि आगे अब कुछ नहीं बचा है, तब यह रूटीन वाली नौकरी और काम ही है, जो आपकी जिंदगी को आगे बढ़ाती है। 'द लंचबॉक्स' में इरफान का किरदार साजन याद होगा, उसकी कही बात भी याद होगी कि जिंदगी चलती रहती है। दिन धीरे-धीरे महीने बन जाते हैं और महीने धीरे-धीरे साल में बदल जाते हैं, क्योंकि वह पूरी शिद्दत से अपनी 9 से 5 की ड्यूटी करता रहता है। ये रूटीन ही है, जो आगे बढ़ाती है। शर्माजी की होम अप्लायंसेज वाली नौकरी भी ऐसी ही थी। उन्हें व्यस्त रखती थी। कई बार जिंदगी में व्यस्त रहना ही सबसे अधिक मायने रखता है। लेकिन रिटायरमेंट के बाद अब क्या?
शर्माजी को खाना पकाने से प्यार है। वॉट्सऐप ग्रुप और पाककला के इसी प्यार के कारण वह एक महिलाओं वाली किटी गैंग से मिलते हैं। जूही चावला इस गैंग की लीडर हैं। सोसाइटी को लेकर महिलाओं के इस गॉसिप गैंग में शर्माजी का मन रमने लगता है। उन्हें एक तरह की खुशी और सांत्वना का एहसास होता है। ये महिलाएं सोसाइटी के रुबते वाले वर्ग से हैं, लेकिन उनकी जिंदगी में भी एक उजड़ापन है। एक बहुत ही सरल और सहज कहानी के जरिए डायरेक्टर हितेश भाटिया हमें जिंदगी का स्वाद देते हैं। बढ़ती उम्र और पुरुष-महिला को लेकर जो रूढ़ियां हैं, उन पर हल्के-फुल्के अंदाज में ही ऐसे चोट करते हैं कि आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं।
रॉबर्ट डी नीरो और नैन्सी मेयर्स की 'द इंटर्न' हो या शूजीत सरकार की 'पीकू' को आप यहां अपवाद के तौर पर ले सकते हैं। क्योंकि अक्सर उम्र के एक पड़ाव के बाद बड़े हो चुके बच्चे अपने बुजुर्ग और परेशान माता-पिता के भाव को नहीं समझते। वह एहसान फरामोश हो जाते हैं। जबकि माता-पिता असल जिंदगी में त्याग और बलिदान का सबसे बड़ा प्रतीक होते हैं। जिंदगी कई बार एकतरफा भी हो जाती है। 'शर्माजी नमकीन' खुद से प्यार करने, अकेलेपन और सिंगल फादर होने के मायने पर बात करती है। यह फिल्म बड़ी चालाकी से 'बागबान' वाले नैरेटिव से अलग सोचने के लिए एक नया आयाम देती है।
यहां कोई विलन नहीं है। कभी-कभी आप खुद ही समस्या का कारण भी होते हैं और उसका समाधान भी। बीते कल में ऐसे कई बोझ हैं, जिसें इंसान ताउम्र पीठ पर ढोकर चलता रहता है। हितेश भाटिया का हीरो आत्म-दया में नहीं डूबता है। वह दयालु है, लेकिन दबाव में नहीं है। वह बिंदास है, एक पिता के तौर पर भी और इंसान के तौर पर भी। लेकिन वह कभी भी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करता। फिल्म के किरदार ऐसे हैं जिनसे आप जुड़ते हैं। वो आपको आपके घर के किसी सदस्य की याद दिला सकते हैं या आपके पड़ोस के किसी शख्स की।
फिल्म में दिल्ली के शानदार स्ट्रीट फूड्स (आलू टिक्की चाट, दही भल्ले) हैं। फिल्म एंटरटेनिंग है। हंसाती है और साथ ही आपका उत्साह भी बढ़ाती है। यह फिल्म न तो आपको कहीं बोर करती है और न ही किसी मौके पर ऐसा लगता है कि यह उपदेश दे रही है। हितेश की इस मायने में तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने अपने अधेड़ हीरो से दर्शकों को जोड़ने के लिए उसे हारा हुआ या पीड़ित नहीं दिखाया है। शकुन बत्रा की तरह ही हितेश भाटिया भी एक बच्चे और उसके माता-पिता डायनमिक्स को नए अंदाज में रखते हैं। हालांकि, उसमें कुछ खामियां जरूर हैं, लेकिन यही इस फिल्म का सबसे बड़ा अट्रैक्शन भी है। फिल्म बताती है कि भले ही परिवार में सदस्यों के बीच मतभेद हों, लेकिन इससे साथ नहीं छूटता।
'शर्माजी नमकीन' ऋषि कपूर की आखिरी फिल्म है। यह उनके निधन के बाद रिलीज हुई है। यकीन मानिए शर्माजी के किरदार में उनसे बेहतर कोई नहीं हो सकता। असल जिंदगी में भी अपनी फैमिली और फूड से प्यार करने वाले ऋषि साहब के लिए यह फिल्म कितनी सहज होगी, इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं। ऋषि कपूर के किरदारों में हमेशा एक ईमानदारी झलकती है। ऐसे जैसे वह किरदार उनकी आत्मा हो। असल जिंदगी में भी ऋषि कपूर बिंदास थे। फिर चाहे द ग्रेट राज कपूर और बेटे के तौर पर हों या रणबीर कपूर के पिता के तौर पर, ऋषि कपूर ने हमेशा एक साहस दिखाया है। 'शर्माजी नमकीन' की गिनती ऋषि कपूर की सबसे बेहतरीन फिल्मों में की जा सकती है। वह लाजवाब हैं। एक पल के लिए यह यकीन करना भी मुश्किल हो जाता है, जो हमें पर्दे पर हंसा रहा है वह अब इस दुनिया में नहीं है।
'शर्माजी नमकीन' हिंदुस्तान की पहली ऐसी फिल्म है, जिसमें एक ही किरदार को दो ऐक्टर्स ने प्ले किया है। ऋषि कपूर की तबीयत नासाज रहने लगी थी। बाद में उनका निधन हो गया। फिल्म अधूरी थी। हितेश भाटिया ने इंडस्ट्री के एक और दिग्गज परेश रावल को चुना। दिलचस्प है कि परेश रावल ने ऋषि कपूर के शर्माजी के किरदार को कॉपी नहीं किया। बल्कि अपने अंदाज में उसे निभाया है। लेकिन यह फिल्म पूरी तरह से ऋषि कपूर की है। पर्दे पर उनकी मुस्कान आपकी आंखों में आंसू ला देते हैं।
हमारे भारतीय माता-पिता आम तौर पर अपने बच्चों को ही सबसे बड़ी प्राथमिकता देते हैं। लेकिन क्या हो, अगर चीजें पलट जाएं। क्या होगा जब वह बच्चों से ज्यादा अपने बारे में सोचने लगेंगे? खुद के लिए फैसले लेंगे। क्या यह सेल्फ लव उन्हें सेल्फिश बना देगा? 'शर्माजी नमकीन' आपको यही सब सोचने का एक मौका देती है।
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