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Channel: Movie Reviews in Hindi: फिल्म समीक्षा, हिंदी मूवी रिव्यू, बॉलीवुड, हॉलीवुड, रीजनल सिनेमा की रिव्यु - नवभारत टाइम्स
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कोर्ट

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कोर्ट के कामकाजों पर आधारित फिल्मों की बात करें तो हमारे जेहन में जॉली एलएलबी, दामिनी से लेकर बीआर चोपड़ा की कानून तक की याद तुरंत आ जाती है। कानून उस समय आई थी जब फिल्मों में गानों को होना जरूरी माना जाता था, लेकिन सब्जेक्ट की डिमांड पर बीआर चोपड़ा ने गाने नहीं रखने का फैसला किया था। इसके बाद भी चोपड़ा की कई फिल्मों में अदालत के सींस उस फिल्म की यूएसपी हुआ करते थे। इनमें वक्त और इंसाफ का तराजू को शामिल किया जा सकता है। हालांकि कोर्ट का एक सीन जो बच्चों से लेकर बड़ों के दिमाग में छप सा गया, वह था दामिनी सन्नी देओल का डायलॉग....तारीख पे तारीख। चैतन्य तम्हाने की फिल्म 'कोर्ट' भी इसी सब्जेक्ट की आस-पास घूमती है। इस फिल्म को पिछले साल मुंबई फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म और बेस्ट डायरेक्टर का अवॉर्ड हासिल हुआ था। यही नहीं इस फिल्म ने इस साल का नैशनल अवॉर्ड भी जीता है। साथ ही कम बजट और नई स्टार कास्ट के साथ बनी इस फिल्म को देश-विदेश के फिल्म फेस्टिवल में काफी सराहा गया है। 71वें वेनिस इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म का अवॉर्ड भी मिला है। यही वजह है कि फिल्म के राइटर, डायरेक्टर चैतन्य ने इसे हिंदी, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी में एक साथ रिलीज करने की हिम्मत दिखाई है।

कहानी : नारायण कांबले (वीरा साथिदा) एक मराठी लोक गायक है। वह बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाता है। नारायण को सरकारी सफाई कर्मचारी 'वासुदेव' के आत्महत्या केस के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाता है और फिर केस शुरू हो जाता है। नारायण की तरफ से ऐडवोकेट विनय वोरा (विवेक गोम्बर) पैरवी करते हैं। वहीं नूतन (गीतांजलि कुलकर्णी) सरकारी एडवोकेट है। दोनों केस को अलग-अलग ढंग से रखने में लग जाते हैं। किसी न किसी वजह से कांबले के केस की अगली डेट लग जाती है। नारायण को इंसाफ मिल पाता है या नहीं यही फिल्म की कहानी है।

ऐक्टिंग : नारायण कांबले, विनय वोरा और नूतन के अहम किरदारों में वीरा साथिदा, विवेक गोम्बर और गीताजंलि कुलकर्णी ने शानदार अभिनय किया है।

डायरेक्शन : डायरेक्टर विवेक गोम्बर ने अपनी इस फिल्म में कोर्ट में हर रोज होने वाले कामकाज को ऐसे सटीक स्टाइल से पेश किया है जो कई बार आपके चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरने का काम करता है। मुझे नहीं लगता कि इस फिल्म से पहले मैंने किसी फिल्म में ऐसे सीन देखे हों, जिसमें जज वकील की सुविधा के मुताबिक डेट्स लगा रहे हो। साथ ही वकालत कर रहे ऐडवोकेट के दिल में जज साहब की कुर्सी तक पहुंचने की चाह रखने के सच को डायरेक्टर ने बड़े मजेदार ढंग से पेश किया है। विवेक ने फिल्म का क्लाइमैक्स गजब का रखा है, आखिरी करीब पंद्रह मिनट की फिल्म आपको हतप्रभ करने का दम रखती है। वहीं मसाला फिल्मों के शौकीनों के लिए इस कोर्ट में कुछ नहीं है तो कम बजट का साया भी फिल्म की मेकिंग को प्रभावित करता है।

क्यों देंखे : इस फिल्म में यह देखने को मिलेगा कि सीमित बजट में अच्छी और बेहतरीन फिल्म कैसे बनाई जा सकती है। साथ ही बॉलिवुड फिल्मों में नजर आने वाले बनावटी कोर्ट से दूर हटकर रियल लाइफ में नजर आने वाले कोर्ट को नजदीक से देखना चाहते हैं तो कोर्ट आपके लिए है।

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