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Channel: Movie Reviews in Hindi: फिल्म समीक्षा, हिंदी मूवी रिव्यू, बॉलीवुड, हॉलीवुड, रीजनल सिनेमा की रिव्यु - नवभारत टाइम्स
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मूवी रिव्यू: झुंड

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'पिस्तुल्या' और 'सैराट' जैसी फिल्मों के लिए नेशनल अवॉर्ड जीत चुके निर्देशक नागराज मंजुले ने कई साल लगाकर असल जिंदगी के 'महानायक' की कहानी को पर्दे पर बयां किया है। ये कहानी नागपुर के रहने वाले रिटायर्ड स्पोर्ट्स टीचर विजय बरसे की है, जिन्होंने झुग्गी-बस्ती में रहने वाले दलित और गरीब बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया। इस 'महानायक' की कहानी को पर्दे पर सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन ने उकेरा है। दो साल नागराज मुंजले ने इस स्क्रिप्ट पर काम किया, रिसर्च की और विजय बरसे के जीवन पर जानकारी इकट्ठा करके 'झुंड' बनाई है। ये फिल्म न केवल प्रेरित करती है बल्कि समाज की कड़वी सच्चाई को बयां करती है।

कहानी
कहानी की शुरुआत स्लम बस्तियों की गंदी गलियों, नशा, छीना झपटी और शराब में डूबे युवाओं से होती है। एक दिन विजय बोराडे (अमिताभ बच्चन) ने स्लम के बच्चों को ग्राउंड में डिब्बे से फुटबॉल खेलता देखा तो उन्होंने इनकी प्रतिभा को समझा। शुरुआत में विजय बोराडे ने बच्चों को पैसे देकर खेलने के लिए मनाया और धीरे-धीरे उन्होंने शिक्षा और प्यार से इन बच्चों की जिंदगी बदल दी। विजय की इस असली कहानी, संघर्ष और उनकी मेहनत को निर्देशक ने अपनी फिल्म में दिखाने का प्रयास किया है।

‘दीवार फांदना सख्त मना है।’ स्पोर्ट्स कॉलेज के दीवार पर लिखी इस पंक्ति के भाव और वास्तविकता का फ़िल्मांकन पूरी ईमानदारी से किया है। दीवार के एक ओर कॉलेज तो दूसरी ओर झुग्गियां हैं। ये दीवार फ़िल्म में कई प्रतीकों का काम करती है। यह भारत के दो समाज को अलग करने के साथ-साथ इसकी आड़ में कुरीतियों को भी समेटने का प्रयास करती है।

झुग्गियों में रहने वाले दलित परिवारों और युवाओं की हकीकत बेचैन कर देती है। ये दृश्य फिल्म को जीवंत बना देते हैं। इसी के साथ अमिताभ बच्चन की दमदार ऐक्टिंग फिल्म में जान फूंकती है। जहां एक तरफ गरीब और दलितों की स्थिति देखकर मन कुचटता है तो वहीं बीच-बीच में ये फिल्म हंसी मजाक से दर्शकों को गुदगुदाती भी है। ढाई घंटे से ज्यादा लंबी इस फिल्म को अगर थोड़ा छोटा किया जाता तो ये ज्यादा सटीक साबित हो पाती।

निर्देशन
फर्स्ट हॉफ में फिल्म हल्का प्रभाव छोड़ती है। सेकेंड हॉफ में यह गति पकड़ती है और मुद्दे को मजबूती के साथ उठाते हुए दर्शकों को कनेक्ट करती है। इस फिल्म से बहुत ज्यादा उम्मीदें थी, वजह है नागराज पोपटराव मंजुले जैसे निर्देशक का होना। इस फिल्म का सब्जेक्ट भी जबरदस्त है लेकिन निर्देशक इस बार दर्शकों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाए। नागराज मंजुले ने इस फिल्म की कथा, पटकथा, संवाद से लेकर निर्देशन का काम संभाला है लेकिन संवाद कमजोर होने की वजह से फिल्म में खालीपन सा लगता है। फिल्म के क्लाईमैक्स में बिग बी अपनी दमदार आवाज और जबरदस्त एक्सप्रेशंस के साथ स्पीच देते हैं लेकिन डायलॉग में दम न होने की वजह से उनकी मेहनत खाली ही जाती दिखती है।

अभिनय
दर्शकों ने अमिताभ बच्चन के 'विजय दीनानाथ चौहान' वाले काल्पनिक किरदार और डायलॉग को तो खूब पसंद किया था। इस बार वह समाज के रियल हीरो 'विजय बरसे' के रोल में हैं। एक स्पोर्ट्स टीचर और कोच के रूप में बिग बी खूब जचे हैं। अमिताभ बच्चन के अलावा इस फिल्म की जिम्मेदारी उनकी झुंड पर थी जिसे बच्चों ने बहुत ही शानदार तरीके से निभाया है। यही झुंड इस फिल्म की जान हैं। बाबू से लेकर अंकुश (डॉन) समेत सभी लड़कों ने झोपड़पट्टी के बच्चों के किरदार में जान फूंक दी। वहीं फिल्म में विजय बरसे के परिवार को भी दिखाया गया है लेकिन ज्यादा महत्व नहीं दिया गया है।

तकनीकी पक्ष
फिल्म का कमजोर पक्ष इसकी पटकथा दिखाई पड़ती है। इस फिल्म के लेखन को यदि ज्यादा कसा जाता तो ये फिल्म औसत से ऊपर साबित हो सकती थी। फिल्म में संवाद दमदार बनाने की महज कोशिश भर की गई है। भारी-भरकम शब्द डाल जरूर दिए गए लेकिन उनका कोई मेल बनता दिखाई नहीं देता। 'सैराट' फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कर चुके सुधारकर रेड्डी यकांती ने इस फिल्म का भी काम संभाला है, जिन्होंने इसे बेहतर बनाने का बढ़िया प्रयास किया है। फिल्म में इक्का दुक्का गाने हैं जो कुछ खास छाप नहीं छोड़ते हैं।


क्यों देखें और क्यों नहीं
NGO स्लम सॉकर के फाउंडर विजय बरसे की पूरी जर्नी को आप महज ढाई घंटों में बहुत ही बढ़िया तरीके से जान सकते हैं। नॉलेज के हिसाब से ये फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। वहीं आप अमिताभ बच्चन के फैन हैं तो बिल्कुल भी इस फिल्म को न छोड़े, क्योंकि ये उनके जबरदस्त निभाए गए किरदारों में से एक है। इस फिल्म में कमी यही खलती है कि ये सब्जेक्ट जितना दमदार था फिल्ममेकर इसे पर्दे पर उतनी दमदारी के साथ उकेर नहीं पाए।

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