कहानी
आप जादू में भरोसा करते हैं? प्रवीण तांबे की कहानी जादुई है। सामान्य जिंदगी में जिन बातों को गिरह बांधकर हम बैठ जाते हैं, प्रवीण तांबे ने न सिर्फ उस गिरह को खोला, बल्कि आगे बढ़कर वो कर दिखाया जो किसी जादू से कम नहीं है। प्रवीण तांबे 40 की उम्र में इंटरनैशनल क्रिकेट में डेब्यू करने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बने। श्रेयस तलपड़े ने पर्दे पर प्रवीण तांबे का किरदार निभाया है। यह कहानी छा जाने की है। चमकने की है। संघर्ष से ज्यादा यह आत्मविश्वास की कहानी है।
रिव्यू
अध्यात्म की दुनिया में एक बात बहुत ही मशहूर हैं। इसके मुताबिक, यदि कोई कॉन्सस क्रिएटर यानी सचेत रचनाकार कोई पक्का इरादा कर लेता है तो उसमें अटूट विश्वास दिखाता है। उसके आसपास की परिस्थितियां कितनी भी बदतर क्यों न हो, उसका यह विश्वास टूटता नहीं है। वह उसे पूरा करके ही दम लेता है। यदि आध्यात्म के इस सिद्धांत की कभी परीक्षा ली जाए, तो प्रवीण तांबे उस के जीवंत उदाहरण होंगे। 41 साल की उम्र में, इस क्रिकेटर ने इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के साथ अपने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट करियर की शुरुआत की। उनका मकसद पैसा कमाना नहीं था, वह सिर्फ एक बार रणजी ट्रॉफी टूर्नामेंट खेलना चाहते थे।
जयप्रद देसाई की यह स्पोर्ट्स ड्रामा संभावना में विश्वास करने की सीख देती है। यह एक जिद्दी दिल की कहनी है, जो सभी रुकावटों को पार करती है। आम तौर पर पर्दे पर इस तरह की कहानियां या तो जीत से शुरू होकर शुरुआत तक जाती है या फिर इसके उलट। लेकिन इस फिल्म की शुरुआत एक मिस्ट्री मैन के बैक शॉट से होती है। ये परमब्रत चट्टोपाध्याय है। फिर फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है और आपको बाद में पता चलता है कि जो शुरुआती सीन दिखाए गए, वो कहां से थे और क्यों थे। फिल्म का प्लॉट 1980-1990 के दशक में प्रवीण तांबे के इर्द-गिर्द घूमती है। यह कहानी तब तक चलती है कि जब वह 2014 में हैट्रिक लगाते हैं।
'दंगल' और ऐसी ही दूसरी स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्मों से बचते हुए डायरेक्टर साहब इसे कोई ड्रामा से भरपूर क्लाइमेक्स नहीं देते हैं। राइटर किरण यद्नोपावित ने तकनीकी चीजों पर भावनात्मक पहलू को ज्यादा वरीयता दी है। बेहतर होता अगर राइटर-डायरेक्टर फिल्म की कहानी के सोर्स पर ज्यादा भरोसा दिखाते और इसे खेल में होने वाली राजनीति से शुरू करते। वो सच जो अब सरेआम है। इसके बाद एक क्रिकेटर के तौर पर प्रवीण तांबे की खुद की नैतिक दुविधाओं, बूढ़ी मां की चिंता और एक पत्नी जो तीन बच्चों की परवरिश कर रही है, इन सब को जगह दी जा सकती थी।परंपराओं से परे कहानियों को कहने के लिए लीक से हटकर कहानी कहने की कला भी होनी चाहिए। 'कौन प्रवीण तांबे?' की कहानी को और बेहतर तरीके से कहे जाने की जरूरत थी।
सिनेमा की दुनिया में श्रेयस तलपड़े की पहली धमक एक स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म 'इकबाल' से हुई थी। वह जुझारू और अच्छे ऐक्टर हैं। ऐसे में पर्दे पर उन्होंने गुस्से को संयमित तरीके से बांधना, निराश करने देने वाली आशा और ऐसी ही दूसरे भावनाओं को बखूबी छुपा लिया। बेशक, एक मराठी होने के नाते एक ऐक्टर के तौर पर वह मुंबईकर के डेली लाइफ को आसानी से निभा लेते हैं। फिल्म के एक सीन है, जहां श्रेयस तलपड़े का किरदार आसपास पाउर से सने चेहरों के बीच घिरा है। इस सीन को बेहतरीन बनाया जा सकता था। 'इकबाल' की तरह इस बार भी श्रेयस के पास बढ़िया मौका था कि वह अपनी ऐक्टिंग से सभी को चौंका दें, लेकिन अफसोस कि वह इस बार चूक गए।
परमब्रत ने हाल के वर्षों में एक ऐसे ऐक्टर के तौर पर खुद को सामने रखा है, जिन्हें आप सहेजकर रखना चाहते हैं। 'कौन प्रवीण तांबे?' में ग्रे शेड में वह अपनी ऐक्टिंग से चौंकाते हैं। आशीष विद्यार्थी की एक ऑफबीट कोच की भूमिका में हैं, जिसका कैरेक्टर न व्हाइट है और न ही ब्लैक। फिल्म में श्रीमती तांबे का किरदार निभा रही हैं अंजलि पाटिल। वह एक सहज और आत्मविश्वासी अवतार में अच्छी लगी हैं।
यदि आप 'कौन प्रवीण तांबे?' देखने की तैयारी कर रहे हैं, तो एक स्पोर्ट्स बायोपिक फिल्म के तौर पर यह आपको आपके सपनों का पीछा करने के लिए उत्साह की एक नई खुराक देगी। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में आशीष विद्यार्थी कहते हैं, 'लाइफ हो या मैच, आपको बस एक अच्छा ओवर चाहिए।'
आप जादू में भरोसा करते हैं? प्रवीण तांबे की कहानी जादुई है। सामान्य जिंदगी में जिन बातों को गिरह बांधकर हम बैठ जाते हैं, प्रवीण तांबे ने न सिर्फ उस गिरह को खोला, बल्कि आगे बढ़कर वो कर दिखाया जो किसी जादू से कम नहीं है। प्रवीण तांबे 40 की उम्र में इंटरनैशनल क्रिकेट में डेब्यू करने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी बने। श्रेयस तलपड़े ने पर्दे पर प्रवीण तांबे का किरदार निभाया है। यह कहानी छा जाने की है। चमकने की है। संघर्ष से ज्यादा यह आत्मविश्वास की कहानी है।
रिव्यू
अध्यात्म की दुनिया में एक बात बहुत ही मशहूर हैं। इसके मुताबिक, यदि कोई कॉन्सस क्रिएटर यानी सचेत रचनाकार कोई पक्का इरादा कर लेता है तो उसमें अटूट विश्वास दिखाता है। उसके आसपास की परिस्थितियां कितनी भी बदतर क्यों न हो, उसका यह विश्वास टूटता नहीं है। वह उसे पूरा करके ही दम लेता है। यदि आध्यात्म के इस सिद्धांत की कभी परीक्षा ली जाए, तो प्रवीण तांबे उस के जीवंत उदाहरण होंगे। 41 साल की उम्र में, इस क्रिकेटर ने इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के साथ अपने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट करियर की शुरुआत की। उनका मकसद पैसा कमाना नहीं था, वह सिर्फ एक बार रणजी ट्रॉफी टूर्नामेंट खेलना चाहते थे।
जयप्रद देसाई की यह स्पोर्ट्स ड्रामा संभावना में विश्वास करने की सीख देती है। यह एक जिद्दी दिल की कहनी है, जो सभी रुकावटों को पार करती है। आम तौर पर पर्दे पर इस तरह की कहानियां या तो जीत से शुरू होकर शुरुआत तक जाती है या फिर इसके उलट। लेकिन इस फिल्म की शुरुआत एक मिस्ट्री मैन के बैक शॉट से होती है। ये परमब्रत चट्टोपाध्याय है। फिर फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है और आपको बाद में पता चलता है कि जो शुरुआती सीन दिखाए गए, वो कहां से थे और क्यों थे। फिल्म का प्लॉट 1980-1990 के दशक में प्रवीण तांबे के इर्द-गिर्द घूमती है। यह कहानी तब तक चलती है कि जब वह 2014 में हैट्रिक लगाते हैं।
'दंगल' और ऐसी ही दूसरी स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्मों से बचते हुए डायरेक्टर साहब इसे कोई ड्रामा से भरपूर क्लाइमेक्स नहीं देते हैं। राइटर किरण यद्नोपावित ने तकनीकी चीजों पर भावनात्मक पहलू को ज्यादा वरीयता दी है। बेहतर होता अगर राइटर-डायरेक्टर फिल्म की कहानी के सोर्स पर ज्यादा भरोसा दिखाते और इसे खेल में होने वाली राजनीति से शुरू करते। वो सच जो अब सरेआम है। इसके बाद एक क्रिकेटर के तौर पर प्रवीण तांबे की खुद की नैतिक दुविधाओं, बूढ़ी मां की चिंता और एक पत्नी जो तीन बच्चों की परवरिश कर रही है, इन सब को जगह दी जा सकती थी।परंपराओं से परे कहानियों को कहने के लिए लीक से हटकर कहानी कहने की कला भी होनी चाहिए। 'कौन प्रवीण तांबे?' की कहानी को और बेहतर तरीके से कहे जाने की जरूरत थी।
सिनेमा की दुनिया में श्रेयस तलपड़े की पहली धमक एक स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म 'इकबाल' से हुई थी। वह जुझारू और अच्छे ऐक्टर हैं। ऐसे में पर्दे पर उन्होंने गुस्से को संयमित तरीके से बांधना, निराश करने देने वाली आशा और ऐसी ही दूसरे भावनाओं को बखूबी छुपा लिया। बेशक, एक मराठी होने के नाते एक ऐक्टर के तौर पर वह मुंबईकर के डेली लाइफ को आसानी से निभा लेते हैं। फिल्म के एक सीन है, जहां श्रेयस तलपड़े का किरदार आसपास पाउर से सने चेहरों के बीच घिरा है। इस सीन को बेहतरीन बनाया जा सकता था। 'इकबाल' की तरह इस बार भी श्रेयस के पास बढ़िया मौका था कि वह अपनी ऐक्टिंग से सभी को चौंका दें, लेकिन अफसोस कि वह इस बार चूक गए।
परमब्रत ने हाल के वर्षों में एक ऐसे ऐक्टर के तौर पर खुद को सामने रखा है, जिन्हें आप सहेजकर रखना चाहते हैं। 'कौन प्रवीण तांबे?' में ग्रे शेड में वह अपनी ऐक्टिंग से चौंकाते हैं। आशीष विद्यार्थी की एक ऑफबीट कोच की भूमिका में हैं, जिसका कैरेक्टर न व्हाइट है और न ही ब्लैक। फिल्म में श्रीमती तांबे का किरदार निभा रही हैं अंजलि पाटिल। वह एक सहज और आत्मविश्वासी अवतार में अच्छी लगी हैं।
यदि आप 'कौन प्रवीण तांबे?' देखने की तैयारी कर रहे हैं, तो एक स्पोर्ट्स बायोपिक फिल्म के तौर पर यह आपको आपके सपनों का पीछा करने के लिए उत्साह की एक नई खुराक देगी। ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में आशीष विद्यार्थी कहते हैं, 'लाइफ हो या मैच, आपको बस एक अच्छा ओवर चाहिए।'
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