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Channel: Movie Reviews in Hindi: फिल्म समीक्षा, हिंदी मूवी रिव्यू, बॉलीवुड, हॉलीवुड, रीजनल सिनेमा की रिव्यु - नवभारत टाइम्स
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फिल्म रिव्यू: जयेशभाई जोरदार

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किसी भी फिल्म को दमदार बनाने में उसके इंटेंशन के साथ-साथ उसका एग्जीक्यूशन होना भी जरूरी होता है, वरना फिल्मकार की अच्छी नीयत वाली कहानी जब पर्दे पर उस तरह से चित्रित नहीं हो पाती तो वह दर्शक को बांधने में नाकाम रहती है। यही नवोदित निर्देशक दिव्यांग ठक्कर के साथ हुआ। भ्रूण हत्या और रूढ़िवादी सोच जैसे विषय वाली उनकी फिल्म की मंशा बहुत हो जोरदार थी, लेकिन कमजोर लेखन और सतही निष्पादन के कारण फिल्म किसी सिरे नहीं पहुंच पाती। ये कहना गलत नहीं होगा कि 'जयेशभाई जोरदार' (Jayeshbhai Jordaar) पर्दे पर जोरदार बनते-बनते रह गई।

फिल्म की कहानी गुजराती बैकड्रॉप पर आधारित है। यह गुजरात का एक ऐसा गांव है, जहां पर मर्दवादी सोच का बोलबाला है। गांव में लड़कों के शराब पीने पर नहीं बल्कि लड़कियों के साबुन से नहाने पर पाबंदी लगाई जाती है, क्योंकि मर्दों का मानना है कि गांव की औरतें खुशबूदार साबुन का इस्तेमाल करके मर्दों को छेड़खानी के लिए मजबूर करती है। इसी गांव में जयेशभाई (रणवीर सिंह) दबंग और पुरुष सत्ताक सोच रखने वाले सरपंच बोमन ईरानी का एक ऐसा इकलौता डरपोक बेटा है, जिसकी पिता के सामने बोलती बंद हो जाती है। वह अपने पिता और मां (रत्ना पाताल शाह) के साथ अपनी पत्नी मुद्रा (शालिनी पांडे) के भ्रूण के लिंग परीक्षण के लिए आया है। जयेश भाई की एक बेटी है, मगर उस पर पिता और समाज द्वारा परिवार का वंश बढ़ाने के लिए बेटा पैदा करने का दबाव है। इसी दबाव के कारण वह 5 बार लिंग परीक्षण के बाद अपनी पत्नी का गर्भपात करवा चुका है, क्योंकि लिंग परिक्षण में भ्रूण लड़की निकली थी। इस बार के भ्रूण परीक्षण में भी जयेश भाई (Ranveer Singh) को पता चलता है कि उसकी पत्नी के गर्भ में लड़की पल रही है। वह जानता है कि जैसे ही उसके परिवार को लड़की होने का पता चलेगा, वे इसे भी दुनिया में नहीं आने देंगे और इसीलिए वह फैसला करता है कि वह अपनी अजन्मी बेटी के साथ अन्याय नहीं होने देगा और उसे दुनिया में लाएगा। मगर क्या वह पिता, समाज और व्यवस्था से लड़कर अपनी बेटी को दुनिया में ला पाता है? क्या वह अपनी मां, पत्नी सरीखी गांव की तमाम औरतों का सशक्तिकरण कर पाता है? ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

इस फिल्म से बॉलिवुड में अपना आगाज करने वाले नए लेखक-निर्देशक दिव्यांग ठक्कर ने समाज की पिछड़ी सोच, लैंगिक असामनता और भ्रूण हत्या जैसे गंभीर और संवेदनशील विषय को हैंडल करने के लिए लाइट कॉमिडी का रास्ता इख्तियार किया। मगर उथले लेखन के कारण कहानी अपनी सीरियसनेस को खो देती है। निर्देशक ने फिल्म में एक साथ तमाम महिला विरोधी मुद्दों को उठाया है। चाहे वो पर्दा प्रथा हो या खानदान को वारिस देने की जिम्मेदारी, मगर उन मुद्दों के साथ डील करते हुए उन्होंने जिस हास्य-व्यंग्य का इस्तेमाल करके कहानी को आगे बढ़या, वो कहीं का कहीं किरदारों को मजबूत करने के बजाय कमजोर कर देती है। मध्यांतर तक फिल्म अच्छी चलती है और उत्सुकता पैदा करती है कि सेकंड हाफ दमदार होगा, मगर इंटरवल के बाद कहानी अपनी विश्वसनीयता खो देती है। निर्देशन बिखरा हुआ लगता है। हरियाणा से पुनीत इस्सर जैसे किरदारों को इंट्रोड्यूज करना भी व्यर्थ साबित होता है। प्यार के रूमानी मेसेज के लिए निर्देशक ने जिस 'पप्पी' (चुंबन) का इस्तेमाल किया, उसका भी फिल्म में अतिरेक कर दिया है। फिल्म की सेटिंग और लहजा बनावटी लगता है। जहां तक संगीत की बात है, तो फायर क्रेकर गाने के अलावा और कोई गाना नहीं जंचता और मुश्किल ये है कि ये गाना भी क्लाईमैक्स में आता है।

अभिनय और अभिनेता की बात करें तो रणवीर सिंह हर तरह से जोरदार साबित हुए हैं। अपनी भूमिकाओं को लेकर उनकी जुनूनीयत पर्दे पर साफ झलकती है, मगर वे भी कमजोर राइटिंग का शिकार हो कर रह गए हैं। हालांकि रचनात्मक कमियों के बावजूद रणवीर की एनर्जी उम्मीद का दामन छूटने नहीं देती। अर्जुन रेड्डी फेम शालिनी पांडे ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। बोमन ईरानी और रत्ना पाठक जैसे समर्थ अदाकार प्रभावित करने में नाकाम रहते हैं।

क्यों देखें -रणवीर सिंह के फैंस इस फिल्म को देख सकते हैं।

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