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Channel: Movie Reviews in Hindi: फिल्म समीक्षा, हिंदी मूवी रिव्यू, बॉलीवुड, हॉलीवुड, रीजनल सिनेमा की रिव्यु - नवभारत टाइम्स
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मलंग

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निर्देशक के रूप में मोहित सूरी का ट्रैक रेकॉर्ड शानदार रहा है, तो जाहिर है, वे जब मलंग लेकर आते हैं तो उनसे उम्मीदें भी उतनी ही बावस्ता होती हैं। मोहित की इस फिल्म में आपको परफॉर्मेंस तो दमदार मिलती है, मगर कहानी में उनकी कई फिल्मों का मिश्रण नजर आता है।

फिल्म की कहानी जेल में दूसरे कैदियों को अधमरा करनेवाले अद्वैत (आदित्य रॉय कपूर) से होती है। वह जेल से छूटता है और पुलिस अफसर अंजनी अगाशे को फोन करके कहता है कि उसे एक मर्डर रिपोर्ट करना है, जो होने जा रहा है। उसके बाद पुलिस वालों के खौफनाक कत्ल का सिलसिला शुरू होता है। इस बीच कहानी फ्लैशबैक में भी जाती है, जहां अद्वैत गोवा की एक अडवेंचर्स ट्रिप में हिप्पी टाइप की लड़की सारा (दिशा पाटनी) से मिला था। लंदन से आई मस्तमौला सारा अद्वैत को जिंदगी जीना सिखाती है। दोनों एक-दूसरे के साथ खुश हैं, तभी उनकी जिंदगी में तूफान आ जाता है।


यहां प्रजेंट में पुलिसवालों के मर्डर का सिलसिला थम ही नहीं रहा है। अपने साथी पुलिसवालों की सिलिसिलेवार हत्याओं के केस को सुलझाने में अंजनी के साथ माइकल रॉड्रिक्स (कुणाल खेमू) भी जुटा हुआ है। अद्वैत पुलिसवालों को क्यों मार रहा है? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

निर्देशक के रूप में मोहित सूरी इस तरह की थ्रिलर फिल्मों में माहिर हैं। यही वजह है कि कहानी की शुरुआत थ्रिलिंग अंदाज में होती है, मगर फिल्म में फ्लैशबैक के सीन्स थ्रिलर के पेस में व्यवधान साबित होते हैं। जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, आपको 'एक विलन' और 'मर्डर' की झलकियां नजर आने लगती हैं। इंटरवल के बाद कहानी गति पकड़ती है, मगर फिर वह प्रिडक्टिबल हो जाती है। मोहित ने कई जगहों पर सिनेमैटिक लिबर्टी ली हैं। क्लाइमैक्स सुखद होने के बावजूद चौंकाता नहीं है। वेद शर्मा के संगीत में मलंग का टाइटिल ट्रैक प्रभावी बन पड़ा है। रेडियो मिर्ची के टॉप ट्वेंटी में यह 6 ठे पायदान पर है। विकास शिवरामन की सिनेमटॉग्रफी थ्रिल में इजाफा करती है। राजू सिंह का बैकग्राउंड स्कोर जबरदस्त है।


फिल्म में हर कलाकार ने यादगार परफॉर्मेंस दी है। अद्वैत के रूप में आदित्य रॉय कपूर ने ऐक्शन-इमोशन और रोमांस में खुद को साबित किया है। फिल्म में उनकी बॉडी और बॉडी लैंग्वेज का ट्रांसफॉर्मेशन काबिल-ए-तारीफ है। दिशा पाटनी बेहद ग्लैमरस और खूबसूरत लगी हैं। आदित्य और दिशा के बीच के जज्बाती और रूमानी दृश्य अच्छे बन पड़े हैं। एक बैड कॉप के रूप में अनिल कपूर ने लाजवाब अभिनय किया है। ड्रग्ज के आदि और अपने नियम-कानून को माननेवाले पुलिस अफसर के रोल में अनिल हर तरह से जंचे हैं। माइकल के रूप में कुणाल खेमू ने परदे पर अलग तरह के किरदार को यादगार बनाया है। फिल्म में उनका चरित्र केंद्र में है और कुणाल ने साबित किया है कि जब भी उन्हें जटिल भूमिकाएं दी जाएंगी, वे न्याय करने में कामयाब रहेंगे। एली अवराम ठीक-ठाक रही हैं। सहयोगी कास्ट विषय के अनुरूप है।

क्यों देखें: ऐक्शन-थ्रिलर फिल्मों के शौकीन और आदित्य-अनिल के फैंस यह फिल्म जरूर देख सकते हैं।

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शिकारा

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बीस साल पहले निर्माता-निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा रितिक-संजय दत्त अभिनीत 'मिशन कश्मीर' लाए थे। एक बार फिर वे शिकारा के जरिए दर्शकों को नब्बे के उस दशक में ले चलते हैं, जब तकरीबन 4 लाख कश्मीरी पंडितों को अपने घरों से निकाल कर विस्थापित कर दिया गया था। फिल्म के संवेदनशील विषय के कारण फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने की मांग की गई थी, मगर फाइनली फिल्म को रिलीज की मंजूरी मिल गई है।

कहानी फ्लैशबैक से शुरू होती है, जहां कश्मीर में अमन चैन था और खूबसूरत वादियों में कश्मीरी पंडित कवि और प्रफेसर शिव धर (आदिल खान) के मन में शांति (सादिया खान) के प्रति प्रेम पनपता है। वह अपने दिल का हाल अपने जिगरी दोस्त को बताता है और दोस्त उन दोनों के प्यार को शादी की मंजिल तक ले जाता है। फिर अलगाव की चिंगारी फूटती है और वह एक ऐसी भीषण आग को जन्म लेती है, जिससे बचने के लिए शिव और शांति ही नहीं बल्कि लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने घर से बेघर होने पर मजबूर कर दिया जाता है। इस सिलसिले में शिव और शांति कई अपनों को भी खोते हैं। इन लोगों को विस्थापित हुए 30 हो चुके हैं, मगर अब भी इन्हें अपनी घर वापसी की उम्मीद है। इस बीच इनकी जिंदगियां कई उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरती हैं, मगर शिव और शांति का एक -दूसरे के प्रति प्यार समर्पण कम नहीं होता।


निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की तारीफ करनी होगी, जो उन्होंने एक अटूट प्रेम कहानी के जरिए कश्मीरी पंडितों के विस्थापन के मुद्दे को उठाया। कहानी में कई परतें हैं, जो दर्शाती हैं कि किस तरह से अलगाववादी और स्वार्थी तत्वों ने कश्मीर की अखंडता को खंडित किया, मगर जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती जाती है, वह एक मुद्दे वाली फिल्म कम प्रेम कहानी ज्यादा नजर आती है। निर्देशक ने इस मुद्दे को उठाया जरूर मगर सेफ होने के चक्कर में वे इसकी गहराई में नहीं उतरे। फिल्म का नरेटिव सुस्त है, मगर रंगराजन रामबरदन की सिनेमटोग्राफी खूबसूरत है। इंटरवल के बाद कहानी थोड़ी खिंच जाती है और क्लाइमैक्स का अंदाजा आपको पहले ही हो जाता है। ए आर रहमान का बैकग्राउंड स्कोर विषय की संवेदनशीलता को इस खूबी से दर्शाता है कि दिल में उतर जाता है। संदेश शांडिल्य का संगीत फिल्म को मजबूती प्रदान करता है।

आदिल खान और सादिया खान जैसे दोनों ही नए चेहरों ने सशक्त अभिनय अदायगी की है। कहानी में दोनों ही किरदार 30 साल के टाइम फ्रेम को अदा करते नजर आते हैं अतः युवा सादिया जितनी खूबसूरत और मासूम लगी हैं, उतनी ही अधेड़ अवस्था में भी जंची हैं। आदिल ने भी यंग और अडल्ट दोनों ही पार्ट को बखूबी निभाया है। जैन खान दुर्रानी और प्रियांशु चटर्जी ने अपने यादगार किरदारों से कहानी को बल दिया है। सहयोगी किरदार औसत हैं।

क्यों देखें-प्रेम कहानियों के शौकीन और कश्मीरी पंडितों के प्रति उत्सुक लोग यह फिल्म देख सकते हैं।

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लव आज कल

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आपने आमतौर पर सोशल मीडिया पर युवाओं के रिलेशनशिप स्टेटस के आगे पढ़ा होगा 'इट्स कॉम्प्लिकेटेड'। इम्तियाज अली की 'लव आज कल' भी प्यार और रिलेशनशिप के उसी कॉम्प्लिकेशंस को दर्शाती है। प्यार जटिल होता है और वो परफेक्ट नहीं हो सकता। इम्तियाज ने इसी तर्ज पर 'लव आज कल' को बुना है। आज से तकरीबन 11 साल पहले दीपिका और सैफ को लेकर इसी शीर्षक के साथ दो अलग दौर की कहानियों के साथ पेश हुए थे। इस बार भी वे उसी फॉर्मेट को लेकर आगे बढ़ते हैं, मगर इस बार उन्होंने इस उलझन को इतना ज्यादा उलझा दिया है कि दर्शक कहानी से खुद को जोड़ नहीं पाता।



पहले फ्रेम से ही कहानी पास्ट और प्रजेंट के साथ चलती है। करियर ओरिएंटेड और बेबाक जोई (सारा अली खान) आज के दौर की वो लड़की है, जो लड़कों के साथ टाइम पास तो करती है, मगर किसी सीरियस रिलेशनशिप में इसलिए नहीं बंधना चाहती, क्योंकि कहीं वह उसके करियर में बाधक न बन जाए। एक रात उसकी मुलाकात बेवकूफ से दिखनेवाले और अपनी दुनिया में खोए रहनेवाले वीर से होती है, जो पेशे से प्रोग्रामिंग इंजिनियर है। जोई उसकी ओर आकर्षित होती है, मगर जब वीर जोई को यूनिक और स्पेशल समझकर उससे जिस्मानी रिश्ता नहीं बनाता, तो जोई को बहुत ही अजीब लगता है और वह वीर को झिड़क देती है, मगर वीर जोई का पीछा करता हुआ, उस को-वर्क प्लेस तक पहुंच जाता है, जहां से जोई काम करती है। उस जगह का मालिक रणदीप हुड्डा जोई को अपनी प्रेम कहानी सुनाकर अहसास दिलाता है कि वीर उसके प्रति सीरियस है। नब्बे के दशक में रघु (कार्तिक आर्यन, रणदीप की युवावस्था) उदयपुर में अपने स्कूल में पढ़नेवाली लीना (आरुषि शर्मा) से इस कदर प्यार करता है कि वे दोनों उदयपुर में बदनाम हो जाते हैं। रघु और लीना की प्रेम कहानी का जोई पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह वीर की अहमियत को समझने लगती है और उसके प्यार में पड़ जाती है। मगर फिर जोई का करियर और उसका कन्फ्यूजन उनके रिश्ते को अनचाहे मोड़ पर ले जाता है, वहां रघु और लीना का ओल्ड स्कूल लव भी अपना रंग बदलता है।



निर्देशक इम्तियाज अली रिश्तों की जटिलता और प्यार के हिस्से में आनेवाले दर्द और घुटन को दर्शाने में माहिर रहे हैं, मगर इस बार पास्ट-प्रजेंट में चलनेवाली दो कहानियों का घटनाक्रम इतनी तेजी से बदलता है कि उलझन बढ़ती जाती है। रघु और लीना की प्रेम कहानी के कई दृश्य बेहद क्यूट हैं, मगर जोई और वीर की लव स्टोरी अलग ही ट्रैक पर चलती है। फिल्म में इमोशनल ड्रामा बहुत ज्यादा हाई है। 2 घंटे 22 मिनट की लंबाई एक हद के बाद खलने लगती है। स्क्रीनप्ले कमजोर है। मगर 'आना तो पूरी तरह आना' जैसे कई संवाद कैची हैं। अमित रॉय की सिनेमटॉग्रफी आकर्षक है। प्रीतम के संगीत में 'शायद' और 'हां मैं गलत' जैसे गाने दमदार बन पड़े हैं। 'शायद' रेडियो मिर्ची के टॉप ट्वेंटी की लिस्ट में सातवें पायदान पर है।


अभिनय की बात करें तो स्मॉल टाउन स्कूल बॉय रघु के रूप में कार्तिक आर्यन खूब जंचे हैं। सीधे-सादे लड़के से रंगीले रतन के रूप में उनका ट्रांसफॉर्मेशन दमदार है, मगर वीर के रूप में उन्हें अपनी प्रतिभा को दिखाने का ज्यादा मौका नहीं मिला है। जोई के रूप में सारा बहुत ही खूबसूरत और आत्मविश्वासी लगी हैं, मगर अपने किरदार को कई जगहों पर उन्होंने लाउड बना दिया है। वह जोई के किरदार की गहराई में उतर पाने में कमतर साबित हुई हैं। नवोदित आरुषि शर्मा ने लीना के रूप में सहज और सुंदर अभिनय किया है। वे अपने रोल में हर तरह से परफेक्ट रही हैं। रणदीप हुड्डा जैसे सशक्त अभिनेता के पास फिल्म में कुछ खास करने को नहीं था।


क्यों देखें: इम्तियाज अली, कार्तिक और सारा के फैन्स यह फिल्म देख सकते हैं।

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भूत: पार्ट वन - द हॉन्टेड शिप

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आज से तकरीबन 17 साल पहले रिलीज़ हुई राम गोपाल वर्मा की 'भूत' को भारतीय सिनेमा की यादगार हॉरर फिल्मों में गिना जाता है। इसीलिए जब सालों बाद धर्मा जैसा बड़ा प्रॉडक्शन हाउस विकी कौशल जैसे समर्थ कलाकर के साथ इसी शीर्षक वाली 'भूत' लेकर आता है, तो दर्शक के रूप में आपको लगता है कि कुछ नया देखने को मिलेगा, मगर फर्स्ट टाइम डायरेक्टर भानु प्रताप सिंह अपनी डेब्यू फिल्म के जरिए ऐसा कुछ नहीं दर्शा पाए, जो हॉरर प्रेमियों ने पहले न देखा हो।

शिपिंग अफसर पृथ्वी (विकी कौशल) अपनी निजी जिंदगी में अकेलेपन और अवसाद से उबरने की कोशिशों में लगा हुआ है। तभी उसे खबर मिलती है कि समंदर के किनारे एक बहुत बड़ा जहाज बिना किसी क्रू मेंबर के अपने आप आप पहुंचा है। पृथ्वी का बॉस जो कि रिटायरमेंट की कगार पर है, जल्द से जल्द इस शिप से छुटकारा पाना चाहता है।


अभी वे इस शिप की जांच-पड़ताल कर रहे होते हैं कि पृथ्वी को जहाज में कुछ अजीबो-गरीब अनुभव होते हैं। उस वक्त पृथ्वी डर जाता है, जब ये डरावने अनुभव उसे घर में भी घेरने लगते हैं। पृथ्वी को पता चलता है कि सी बर्ड नाम का यह जहाज एक अरसे से हॉन्टेड है। उसे जहाज में किसी साए के होने का आभास होता है। वह जब इस भुतहा कहे जानेवाले जहाज की जांच-पड़ताल करता है, तो कई राज खुलते जाते हैं, जो बहुत ही भयावह सच को उजागर करते हैं। इसी पड़ताल में पृथ्वी की निजी जिंदगी का दुखद पहलू भी सामने आता है।


निर्देशक भानु प्रताप सिंह की यह फिल्म रियल इंसिडेंट पर आधारित है, जब सालों पहले एक बहुत बड़ा-सा पानी का जहाज बिना किसी इंसान के अचानक किनारे पर आ खड़ा हुआ था। इसमें कोई शक नहीं कि फिल्म का पहला डरावना सीन मुंह से चीख निकलने पर मजबूर कर देता है, मगर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती जाती है, डर का माहौल अपनी पकड़ नहीं बना पाता। विकी कौशल की निजी जिंदगी का पहलू आमिर खान की 'तलाश' की याद दिलाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि फिल्म के कुछ दृश्य अच्छे-खासे डरावने हैं, मगर उनमें नवीनता का अभाव है। छत और दीवारों पर छिपकली की तरह रेंगती चुड़ैलें हम पहले भी देख चुके हैं। भूत का मेकअप डराने के बजाय फनी लगता है। बैकग्राउंड म्यूजिक ने डर को बढ़ाने में अच्छा साथ दिया है, मगर कमजोर स्क्रीनप्ले के कारण दोहराव का अहसास होता है।


हॉरर फिल्मों को सशक्त बनाने के लिए जिस तरह के कम्प्यूटर ग्राफिक्स का इस्तेमाल किया गया है, वह नाकाफी है। सेकंड हाफ में कहानी बिखर कर उलझ जाती है और क्लाईमैक्स में 'हीम क्लीम चामुंडाय' मंत्र के कारण यह टिपिकल हॉरर फिल्म बन कर रह जाती है। भूत के होने का कारण भी विश्वसनीय नहीं बन पाया है। फिल्म के आखिर में निर्देशक पार्ट टू बनाने का इशारा भी दे जाता है।


अपराध बोध और अवसाद से ग्रसित पृथ्वी के चरित्र को विकी कौशल ने बखूबी निभाया है। डर और हैरत के दृश्यों में भी वे अच्छे रहे हैं। मेहमान कलाकर के रूप में भूमि याद रह जाती हैं, मगर आशुतोष राणा जैसे सशक्त अभिनेता की भूमिका को सही तरीके से विकसित नहीं किया गया है। सहयोगी कास्ट ठीक-ठाक है।

क्यों देखें-भुतहा फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।

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शुभ मंगल ज्यादा सावधान

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रोज हमें लड़ाई लड़नी पड़ती है जिंदगी में, पर जो लड़ाई परिवार के साथ होती है, वो सारी लड़ाई सबसे बड़ी और खतरनाक होती है। आनंद एल राय निर्मित और हितेश केवल्या निर्देशित 'शुभ मंगल ज्यादा सावधान' का यह डायलॉग समलैंगिक कम्युनिटी की बेबसी और संघर्ष को बयां करता है। वाकई आज भले कानून ने समलैंगिता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया हो, मगर समलैंगिक समुदाय को होमोफोबिया के रूप में अपने ही परिवारों से घृणा, तिरस्कार और रिजेक्शन सहना पड़ता है। फिल्म इस पॉइंट को साबित करने में सफल साबित होती है कि सिर्फ कानून बनाने से बात नहीं बनेगी, सामजिक तौर पर यह काउंसिलिंग होनी भी जरूरी है कि होमोसेक्शुलिटी कोई बीमारी नहीं बल्कि कुदरत है, प्रकृति है और उससे आप नफरत नहीं कर सक सकते।


कहानी के शुरुआती दौर में ही यह साफ हो जाता है कि कार्तिक (आयुष्मान खुराना) गे है और वह अमन त्रिपाठी (जितेंद्र कुमार) से प्यार करता है। उनका असली संघर्ष तब शरू होता है, जब अमन की कजिन की शादी के दौरान अमन के पिता शंकर त्रिपाठी (गजराज राव) उन दोनों को ट्रेन में चुम्बन करते हुए देख लेते हैं। अमन के पिता अपने बेटे की होमोसेक्शुलिटी को समझ भी नहीं पाए थे कि शादी के दौरान दोनों के रिश्ते का सच सबके सामने आ जाता है। उसके बाद तो दोनों के प्यार में कई दीवारें खड़ी करने की कोशिश की जाती है।


कार्तिक को मारा-पीटा जाता है। संयुक्त परिवार में भाई, बहन चाचा-चाची के बीच मां (नीना गुप्ता) अमन को समझाने की कोशिश करती है कि इस बीमारी का इलाज संभव है। मां पंडित जी से कर्म-कांड करवा कर अमन का अंतिम संस्कार कर उसे नया जन्म देने की विधि भी करवाती है। और तो और पिता आत्महत्या की कोशिश और धमकी देकर अमन को शादी करने पर मजबूर भी कर देते हैं। पिता और परिवार के लिए अमन शादी करने को राजी हो जाता है। मगर कार्तिक लगातार अमन को समझाता रहता है कि उसे अपने प्यार के लिए आगे आना होगा? क्या कार्तिक और अमन अपनी सेक्शुएलिटी के साथ परिवार की एक्सेप्टेंस हासिल कर पाते हैं? इसे जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी।

होमोसेक्शुएलिटी पर इससे पहले भी कई फिल्में बनी हैं, मगर निर्देशक हितेश ने इसे बहुत ही मजेदार और मनोरंजक ढंग से दिखाया है। इससे पहले बनी कई फिल्मों में समलैंगिकों की सेक्शुएलिटी पर ज्यादा फोकस किया गया था, जबकि इसमें उनकी पारिवारिक एक्सेप्टेंस के मुद्दे पर जोर दिया गया है। निर्देशक ने स्टोरी के प्लॉट को डेवलप करने में जरा भी वक्त जाया नहीं किया है। उन्होंने बताने की कोशिश की है कि प्यार का कोई लिंग नहीं होता। बैकड्रॉप में इलाहबाद जैसे छोटे शहर के बड़े से परिवार का निरंतर चलनेवाला क्या फिल्म को रिऐलिटिक होने के साथ-साथ कॉमिक रंग भी देता है। हां, फिल्म बीच में कई बार प्रीची भी होती है।


क्लाइमैक्स को फिल्माने में भी निर्देशक ने जल्दबाजी दिखाई है। फिल्म का फर्स्ट हाफ ज्यादा स्ट्रॉन्ग है। फिल्म के 'शंकर त्रिपाठी बीमार बहुत बीमार, उस बीमारी का नाम होमोफोबिया है', 'ये नहीं कहते गे कहते हैं' जैसे फिल्म के कई डायलॉग्स चुटीले हैं। संगीत की बात करें, तो तनिष्क बागची का संगीतबद्ध 'गबरू' रेडियो मिर्ची के टॉप ट्वेंटी में आठवें पायदान पर है जबकि 'अरे प्यार कर ले' जैसे रिमिक्स को भी काफी पसंद किया जा रहा है।


कार्तिक के रूप में आयुष्मान खुराना का फ्लैमबॉयंट और 'भाड़ में जाओ वाला' एटिट्यूड कहानी के लिए सोने पर सुहागा का काम करता है। इसमें कोई शक नहीं की आयुष्मान ने गे चरित्र को न केवल करने का रिस्क उठाया बल्कि उसे बेहद मजबूती से अंजाम दिया। उनके अभिनय की सबसे बड़ी खूबी यही है कि उनका समलैंगिक चरित्र दर्शक को कहीं भी विरक्त नहीं करता। जितेंद्र कुमार की तारीफ करनी होगी कि अमन के रूप में वे कहीं भी उन्नीस साबित नहीं हुए। उन्होंने अपनी भूमिका को बेहद सटल अंदाज में निभाया है। माता-पिता के रूप मं नीना गुप्ता और गजराज राव की जोड़ी और केमेस्ट्री ने खूब मनोरंजन किया है। नीना और गजराज के हिस्से में 'मां के पास दिल होता है', 'हां बाप तो बैटरी से चलता है' जैसे फनी और इमोशनल संवाद भी आए हैं। दोनों ही कलाकारों ने मजाकिया और जज्बाती दृश्यों को बखूबी निभाया है। सपॉर्टिंग कास्ट में कजिन गूगल के रूप में मानवी गागरू, चाचा के रोल में मनुश्री चड्ढा और चाची के किरदार में सुनीता राजवर ने खुलकर हंसने पर मजबूर किया है।

सेंसर बोर्ड ने इसे ए सर्टिफिकेट दिया है। हालांकि समलैंगिता को लेकर जागरुकता फैलानेवाली इस फिल्म को यूए सर्टिफिकेट मिलना चाहिए था।

क्यों देखें: यूथ के साथ-साथ पैरंट्स भी इस फिल्म को जरूर देखें।

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थप्पड़

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बस एक थप्पड़ ही तो था। क्या करूं? हो गया ना। ज्यादा जरूरी सवाल है ये है कि ऐसा हुआ क्यों? बस इसी ‘क्यों’ का जवाब तलाशती है अनुभव सिन्हा की ये फिल्म थप्पड़। इसका ट्रेलर आपने देखा होगा तो कहानी का मोटा अंदाजा लग गया होगा कि अमृता (तापसी पन्नू) कैसे अपने पति विक्रम के प्रति समर्पित है। उसके ख्वाबों को पूरा करने के लिए जी जान लगाए हुए है और फिर एक पार्टी में सबके सामने अचानक पति के थप्पड़ से उसके सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं। फिर एक औरत की जंग शुरू होती है एक ऐसे पति के साथ, जिसका कहना है कि मियां बीवी में ये सब तो हो जाता है। इतना बड़ा तो कुछ नहीं हुआ ना। लोग क्या सोचेंगे मेरे बारे में कि बीवी क्यों भाग गई? जिस औरत की सास उससे ये कहती है कि घर समेट कर रखने के लिए औरत को ही मन मारना पड़ता है। जिस लड़की की अपनी मां उससे तलाक लेने का फैसला सुनकर यह कहती है कि यही सुनना रह गया था कि बेटी तलाक लेगी? क्या गलती हो गई थी हमसे? आसपास ऐसे लोगों से घिरी अमृता पूरे घटनाक्रम को कैसे आगे ले जाती हैं और अंत में क्या होता है, इस बात का अंदाजा ट्रेलर देखकर कतई नहीं लगाया जा सकता।

फिल्म का नाम सुनकर लगता है कि फिल्म घरेलू हिंसा पर आधारित है और न जाने कितनी मारधाड़ और चीख चिल्लाहट इस फिल्म में होगी। और अंत क्या होगा? पति से अलग हो जाती होगी या उसे माफ करके आगे बढ़ जाती होगी। इस सब्जेक्ट पर इससे पहले ऐश्वर्या की प्रोवोक्ट के बेहद हिंसक अंत का ऑप्शन भारतीय दर्शक पहले देख ही चुके हैं। लेकिन बिना हिंसक हुए और बिना भाषणबाजी दिखाए, डायरेक्टर अनुभव सिन्हा ने कहानी का अंत एक ऐसे खूबसूरत मोड़ पर किया है, जिसे सोच पाने की क्षमता अभी तक हमारे भारतीय पुरषसत्तात्मक समाज में तो बिल्कुल न के बराबर है। फिल्म में एक जगह कहा भी गया है कि अगर एक थप्पड़ पर अलग होने की बात हो जाए तो 50 परसेंट से ज्यादा औरतें मायके में हों।

करीब सवा दो घंटे की इस फिल्म के पहले हाफ में अमृता और विक्रम की अपर मिडल क्लास फैमिली की जिंदगी के सपने, उम्मीदें और उन्हें पूरा करने की जद्दोजहद में निकल जाता है। इस दौरान पति पत्नी के बीच प्यार और पत्नी के समर्पण को कहानी में विकसित किया गया है। और फिर जब भरी पार्टी में लगे थप्पड़ की गूंज वहां मौजूद किसी को सुनाई नहीं देती तो तापसी किस तरह उस थप्पड़ के मायने समझकर अपनी जिंदगी जीने का तरीका बदलती हैं इसे फिल्म के दूसरे हिस्से में रखा गया है। तापसी के अलावा फिल्म में साथ साथ पांच और औरतों के जीवन के अंतर्विरोध दिखाए गए है। पांच अलग अलग तबके से जुड़ी इन औरतों के जरिए अनुभव ने औरत की हर तकलीफ को परदे पर उतार दिया। एक किरदार तापसी की मेड है जो पति से मार खाने को ही अपना जीवन समझती है, लेकिन तापसी का सफर कैसे उसे हिम्मत देता है उसके स्टाइल में। दूसरी औरत तापसी की मां (रत्ना पाठक), जिसकी जिंदगी बेहद सामान्य और अन्यथा बेहतर और प्रोग्रेसिव है और लगातार बेटी को पति से अलग न होने की सलाह ही देती है, लेकिन फिल्म का अंत आते आते वह भी अपने साथ हुए अन्याय को महसूस करने लगती है जिसका जिक्र उसने अपने पति से कभी करना जरूरी समझा ही नहीं। तापसी के इस बेहद प्रोग्रेसिव पिता (कुमुद मिश्रा) को तब झटका लगता है जब उन्हें अहसास होता है कि उन्होंने अपनी पत्नी के सपने को कभी जानना जरूरी समझा ही नहीं। तीसरा किरदार है, तापसी की अपनी सास (तन्वी आजमी) जो खुद की पहचान ढूंढने के लिए पति से अलग बेटे के साथ रहती तो है, लेकिन जब बहू को अपना बेटा थप्पड़ लगा रहा है तो उस बात को वह यह कहकर अनदेखा करती है कि बेटा परेशान था, हो गया उससे। और अगले दिन भी बहू से उसका हाल पूछने के बजाय ये पूछती है कि विक्रम रात को ठीक से सोया ना? चौथी कहानी फिल्म में चलती है तापसी की वकील नेत्रा की, जिसे बेहद दमदार तरीके से निभाया है माया सराओ ने। नेत्रा जयसिंह एक कामयाब वकील होने के साथ साथ मशहूर न्यूज एंकर मानव कौल की पत्नी हैं और बेहद कामयाब वकील की बहू। दो पुरुषों की कामयाबी किस तरह उसके व्यक्तित्व और अचीवमेंट को दबा रही है, इसका अंदाजा तापसी का केस लड़ने के दौरान नेत्रा को होता है और फिल्म के अंत में वह बेहद शालीनता से साहसिक कदम उठाने से नहीं चूकतीं। पांचवा किरदार तापसी के भाई की गर्लफ्रेंड का है जो तापसी के साथ उस वक्त खड़ी होती है जब तापसी का भाई तक उसके फैसले से खुश नहीं है। अपने बॉयफ्रेंड से उसका रिलेशन कैसे मोड़ से गुजरता है, यह भी अपने आप में बेहद पावरफुल तरीके से दिखाया गया है।

फिल्म का बेहतरीन हिस्सा है उसका अंत। यह इसलिए क्योंकि फिल्म देखते रहने के दौरान हमारे सामाजिक ढांचे और हमारी परवरिश के कारण कई बार एक सवाल हमारे मन में आ सकता है कि तापसी क्यों इतनी कठोर हो रही हैं? एक थप्पड के कारण घर तोड़ना सही नहीं है। एक चांस तो दे देना चाहिए या शायद दे ही देगी अंत तक। इन सब सवालों का हल कहानी के अंत में दिया गया है। डायरेक्टर ने एक ऐसा हिंट या क्लू पुरुषों को दिया है कि जिसे वह समझ जाए तो घर टूटने की नौबत नहीं आए, क्योंकि घर टूटने का खामियाजा पुरुषों से ज्यादा औरतों को भुगतना पड़ता है। तापसी ने एक पति को समर्पित पत्नी से लेकर थप्पड़ बस इतनी सी बात नहीं है का विश्वास जगाने वाली औरत के एक एक अहसास को गहराई से महसूस किया है जो परदे पर साफ दिखता है। थप्पड़ खाकर अपने कमरे तक पहुंचने के लिए की गई वॉक में तापसी का चेहरा हर उस औरत को आईना दिखाती है जो परिवार के लिए सब कुछ करने के बाद भी किसी लायक नहीं समझी जाती और सब कुछ आसानी से सहन कर लेती है।

अनुभव सिन्हा और मृणमयी लागू ने पूरी फिल्म को ऐसे लिखा है जिसमें हमारे समाज की कड़वी सचाई छह अलग अलग किरदारों के जरिए सामने आती है। फिल्म का अंत उन सभी किरदारों के अच्छे और बुरे पहलू, मन में चलने वाली उलझनें, द्वंद्व और अंतरविरोधों को न सिर्फ सबके सामने रखती है बल्कि पूरे समाज को एक-एक ऑप्शन भी देकर जाती है, ताकि लाइफ जीने लायक बन सके।

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दूरदर्शन

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निर्देशक गगनपुरी ने 'दूरदर्शन' के रूप में कॉमिडी और आधुनिक रिश्तों के ताने-बाने को दर्शाने के लिए दूरदर्शन जैसे मजेदार विषय को चुना तो सही, मगर कमजोर स्क्रीनप्ले और कहानी के कारण वे मजे को बरकरार नहीं रख पाए। वह चाहते तो इस विषय के साथ बहुत खूबसूरती से प्ले कर सकते थे।

कहानी: घर में उस वक्त हंगामा मच जाता है, जब 30 सालों से कोमा में पड़ी दादी (डॉली अहलूवालिया) एक दिन पोते (शरद) के अश्लील साहित्य की नायिका विमला का नाम सुनकर कोमा से उठ खड़ी होती है। इतने सालों से कोमा में पड़ा रहने की जानकारी पाकर कोई सदमा ना लगे इसके डर से उनका बेटा सुनील (मनु ऋषि चड्ढा) और उसकी पत्नी प्रिया (माही गिल) उनके इर्द-गिर्द 90 के दशक का माहौल बनाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि सुनील और प्रिया की शादी तलाक के कगार पर है। किशोर बेटा और बेटी सुनील के साथ ही रहते हैं, मगर वे दोनों भी आपसी मतभेद भुलाकर दादी की सेवा में जुट जाते हैं। अपने कमरे में ज्यादातर समय बिताने वाली दादी अपने जमाने वाले दूरदर्शन लगाने की बात करती हैं। दादी एक एक करके चित्रहार से लेकर दूसरे कार्यक्रम देखने की फरमाइश करती हैं। इसके चलते सभी मिलकर दादी के लिए खुद शूट करके उस जमाने के प्रोग्राम तैयार करते हैं। सिर्फ टीवी ही नहीं बल्कि उनके परिवार के लोगों को खुद को भी 30 साल पहले के जमाने के अनुसार ढलना पड़ता है। पोते -पोती को नौकर तो सुनील और प्रिया को स्कूल जानेवाले स्टूडेंट्स के रूप में ढलना पड़ता है।

रिव्यू: निर्देशक गगनपुरी की कहानी के किरदार रोचक हैं, मगर उन्हें कहानी में विस्तार नहीं मिल पाता। निर्देशक चाहते तो 90 के दशक के माहौल को और ज्यादा कॉमिक ढंग से दर्शा सकते थे। सुनील और प्रिया को दादी जैसी तेज दिमागवाली महिला के सामने स्कूल गोइंग स्टूडेंट्स बनाकर पेश करनेवाली बात पचती नहीं। क्लाईमैक्स जल्दी में निपटा दिया गया, इसके बावजूद फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं, जो चेहरे पर मुस्कान लाते हैं। कुछ जज्बाती दृश्य भी हैं, जो दिल को छूते हैं।

बेटे सुनील के रूप में मनु ऋषि चड्ढा ने बहुत ही बेहतरीन काम किया है। मां के लिए कुछ भी करने को तत्पर बेटे के रूप में वह कन्विंसिंग लगे हैं। दादी के रूप में डोली अहलूवलिया बेहद चार्मिंग रही हैं। माही ने अपनी भूमिका को अच्छा-खासा निभाया है। पोते के रूप में शरद राणा और पोती के किरदार में अर्चिता शर्मा ठीक-ठाक रहे हैं। राजेश शर्मा, सुप्रिया शुक्ला और महक मनवानी औसत रहे हैं।

क्यों देखें: यह फिल्म आपसे रह भी जाए, तो कोई ग़म नहीं।

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कामयाब

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हीरो, हिरोइन और विलेन के बगैर हिंदी फिल्म की कल्पना नहीं की जा सकती, मगर जिस तरह से आलू हर सब्जी में खप जाता है, उसी तरह से हिंदी सिनेमा के सह-चरित्र अदाकार वह प्रजाति होते हैं, जिनके बगैर हिंदी फिल्म की कहानी आगे नहीं बढ़ सकती, मगर सैकड़ों फिल्में करने बावजूद वे अपनी जमीन नहीं तलाश पाते। फिल्म का मुख्य किरदार सुधीर खुद को उसी आलू की तरह समझता है, जो सब्जी के लिए जरूरी तो होता है, मगर उसकी औकात कभी ऊंची नहीं उठ पाती। असल में निर्देशक हार्दिक मेहता की इस फिल्म में ऐसे कलाकार की कहानी और त्रासदी को पेश करते हैं, जो कभी हीरो के दोस्त का दोस्त हो या विलेन का चमचा, डॉक्टर, पुलिस इंस्पेक्टर, मां के बेटे को प्रताड़ित करने वाला या फिर किसी भुतहा हवेली में लालटेन लेकर रामू काका बना हुआ, उसके द्वारा निभाए हुए किरदार लोगों को याद तो रह जाते हैं, मगर उनको पहचान नहीं मिलती।

कहानी: सुधीर (संजय मिश्रा) उन सह-चरित्र अदाकारों में से है, जिसका अपना एक दौर था। उस दौर में सुधीर तकरीबन हर दूसरी फिल्म में होता था, मगर आज वह फिल्मों की चमक-दमक, अपनी बेटी, दामाद और नाती से दूर अपने दोस्त और दो पेग के साथ अकेला रहता है। अपने जमाने में सुधीर की एक फिल्म का डायलॉग 'बस इंजॉइंग लाइफ, और कोई ऑप्शन थोड़ी है?' इतना फेमस हुआ था कि अब उस पर सोशल मीडिया पर मेसेजेस और फॉरवर्ड बन गए। सुधीर को लोगों ने बिसराया नहीं है, मगर उसका नाम कोई जानता नहीं है। एक अरसे बाद एंटरटेनमेंट जर्नलिस्ट उसका टीवी इंटरव्यू करने आती है और तब सुधीर को पता चलता है कि वह अब तक 499 फिल्में कर चुका है। उसके बाद सुधीर को धुन चढ़ जाती है कि अगर एक फिल्म में और काम कर कर ले तो 500 का आंकड़ा पार कर रेकॉर्ड बना सकता है। इसके बाद सुधीर मिलता है अपने पुराने शागिर्द गुलाटी (दीपक डोबरियाल) से जो अब बहुत बड़ा कास्टिंग डायरेक्टर बन चुका है। वह सुधीर को एक रोल में कास्ट भी करता है, मगर उसके बाद सुधीर को रुपहले परदे की उन कड़वी सचाइयों से भी वाकिफ होना पड़ता है, जिसकी गहराई में वह कभी उतरा ही नहीं था।

रिव्यू: निर्देशक हार्दिक मेहता की ये फिल्म इंडस्ट्री में साइडकिक्स कहलाने वाले उन कलाकारों के अस्तित्व के दर्द को बयान करती है, जिन्हें हम उनके नाम से नहीं बल्कि साइड ऐक्टर्स के रूप में जानते हैं। इस दर्द को बयान करते हुए उन्होंने मेलोड्रामा का सहारा लिए बगैर फिल्म को जज्बाती, रियलिस्टिक और फनी तरीके से ट्रीट किया है। फिल्म साइड ऐक्टर्स के दृष्टिकोण से दर्शाई गई है और उसमें इंडस्ट्री की बहुत ही बारीक चीजों को भी अंडरलाइन किया गया है। कैसे कलाकार अपने अभिनय के नशे में परिवार को उपेक्षित कर देते हैं और फिर कैसे उसे तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। ये सारे ट्रैक्स फिल्म को मजबूती प्रदान करते हैं। फिल्म को रियलिस्टिक रखने के लिए निर्देशक ने पुराने दौर के विजू खोटे, बीरबल, अवतार गिल, लिलिपुट जैसे कलाकारों को इस्तेमाल किया है। हालांकि सक्रीनप्ले थोड़ा कसा हुआ होना चाहिए था। सेकंड हाफ स्लो है। इसके बावजूद क्लाइमैक्स रंग जमा जाता है। पियूष पुटी की सिनेमटॉग्रफी सधी हुई है। संगीत पक्ष कमजोर है।

अभिनय के मामले में संजय मिश्रा लाजवाब रहे हैं। उन्होंने न केवल विभिन्न किरदारों के गेटअप को न्याय दिया है मगर उन चरित्रों के बॉडी लेंग्वेज पर भी कड़ी मेहनत की है। वे इस दौर के समर्थ अदाकार हैं और हर भाव को जीने में अव्वल। कास्टिंग डायरेक्टर बने गुलाटी के रूप में दीपक डोबरियाल याद रह जाते हैं। सुधीर की बेटी के रूप में सारिका सिंह और स्ट्रगलिंग ऐक्ट्रेस के रूप में ईशा तलवार ने सहज अभिनय किया है। अवतार गिल का चरित्र भी मजेदार है।

क्यों देखें: रियलिस्टिक फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं।

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बागी 3

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यह सच है कि हिंदी फिल्मों में ऐक्शन की तूती बोलती है और आमतौर पर किसी बदले की भावना या करीबी रिश्ते के लिए फिल्मी पर्दे पर मार-धाड़ करते हीरो द्वारा जब विलन या गुंडों की धुनाई होती है तो ऑडियंस खूब इंजॉय करती है। निर्देशक अहमद खान ने भी भाई को बचानेवाले और दहशतगर्दी के खिलाफ खड़े होने वाले हीरो के जरिए हैरतअंगेज ऐक्शन का नजराना पेश किया है, मगर थोड़ी-सी कहानी पर मेहनत हो जाती तो बात ही कुछ और होती।


दंगों में आम लोगों को बचाने के चक्कर में अपनी जान की बाजी लगाकर शहीद हो चुका इंस्पेक्टर चतुर्वेदी (जैकी श्रॉफ) मरते हुए अपने बेटे रॉनी (टाइगर श्रॉफ) पर अपने दूसरे बेटे विक्रम (रितेश देशमुख) की जिम्मेदारी सौंप कर जाता है। बस उसके बाद हालात ऐसे होते हैं कि जब भी विक्रम पर कोई तिरछी निगाह डालता है, रॉनी का खून खौल उठता है और वह सामनेवाले की हड्डी-पसली एक कर देता है। भाई के भविष्य को संवारने के लिए रॉनी आगरा में उसे पुलिस की नौकरी करने को प्रेरित करता है। वहां वह ह्यूमन ट्रैफिकिंग के जाल को तोड़ने में विक्रम की मदद भी करता है। इस गिरोह से कई लोगों को छुड़ाने वाला विक्रम विभाग का हीरो बन जाता है और उसे ह्यूमन ट्रैफिकिंग के असली सरगना को पकड़ने के लिए सीरिया भेजा जाता है। सीरिया में खूंखार दहशतगर्द अबू जलाल गाजा (जमील खोरी) विक्रम को बंदी बना लेता है। तब रॉनी अपनी माशूका श्रद्धा कपूर के साथ सीरिया आ धमकता है। उसे अपने भाई को किसी भी हाल में बचाना है।


निर्देशक अहमद खान ने पूरी कोशिश की है कि इसमें ऐक्शन का डोज़ 'बागी 2' से ज्यादा स्ट्रॉन्ग हो और इसके लिए उन्होंने मार-धाड़ के दृश्यों को दमदार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मॉल या रास्ते के आम फाइट दृश्य हों या हेलिकॉप्टर अथवा सेना के टैंक के बीच का ऐक्शन, सब कुछ हॉलिवुड फिल्मों जैसा लगता है, मगर स्टोरी और स्क्रीनप्ले के मामले में वे मार खा गए हैं। श्रद्धा कपूर के किरदार के जरिए कॉमिडी तो रितेश के माध्यम से इमोशन का तड़का डाला गया है। कई दृश्य फनी हैं, जो हंसाते भी हैं, मगर फिल्म में 80-90 के दशक की रिवेंज फिल्मों का फील बना रहता है। क्लाइमैक्स के ऐक्शन सीक्वेंस सांस रोक देते हैं, मगर वह काफी खिंच गया है और उसमें मेलोड्रामा भी कम नहीं है। फिल्म की लंबाई कम की जा सकती थी। संताना कृष्णन रविचंद्रन की सिनेमटॉग्रफी देखने लायक है। विशाल-शेखर के संगीत में 'दस बहाने करके ले गई दिल' खूब पसंद किया जा रहा है। रेडियो मिर्ची के टॉप ट्वेंटी की लिस्ट में यह सॉन्ग पांचवें पायदान पर है। अन्य गाने बस ठीक-ठाक से हैं। आइटम सॉन्ग 'डू यू लव मी' में दिशा पाटनी ने गजब के डांस मूव्ज दिखाए हैं।

'लक्ष्मी बम' और 'राधे' की लड़ाई में पिस गई है 'बागी 3'

रॉनी के रोल में टाइगर हर तरह से फिट हैं। मसल्स और टोन्ड बॉडी के साथ जब वह शर्टलेस होकर एंट्री मारते हैं, तो ऑडियंस सीटी बजाने लगती है। वन आर्मी के रूप में सीरिया जाकर जैश-ए-लश्कर जैसे आतंकवादियों को धूल चटाते हुए वे कन्विसिंग लगे हैं। उनकी संवाद अदायगी में भी सुधार हुआ है। श्रद्धा खूबसूरत और ग्लैमरस लगी हैं, उन्होंने कॉमिडी भी की है, मगर उन्हें स्क्रीन पर कुछ ज्यादा करने का मौका नहीं मिला।


रितेश ने भोले-भाले और डरपोक लड़के का रोल तो अच्छा किया है, मगर कहानी में उनके चरित्र को सही ढंग से बुना नहीं गया है। अंकिता लोखंडे की भूमिका को भी विस्तार नहीं दिया गया है। मुख्य विलन अबू जलाल के रूप में जमील खोरी फनी और खतरनाक लगे हैं, मगर दूसरे विलन जम नहीं पाए। विजय वर्मा और जयदीप अहलवात ने अपने किरदारों को ठीक-ठाक निभाया है।


क्यों देखें: ऐक्शन फिल्मों के शौकीन यह फिल्म देख सकते हैं

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अंग्रेजी मीडियम

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इरफान खान की वापसी का फैन्स को बेसब्री से इंतजार था। जाहिर है, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से क्योर होकर इरफान ने जबसे इस फिल्म की शूटिंग शुरू की थी, तभी से उनके चाहनेवाले फिल्म की बाट जोह रहे थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि इरफान ने अपने फैन्स को इस फिल्म में उम्मीद से ज्यादा दिया और एक बार फिर यह साबित कर दिखाया कि उन्हें इस दौर का समर्थ और एफर्टलेस अभिनेता क्यों कहा जाता है।


कहानी है उदयपुर में बसनेवाले चंपक बंसल (इरफान खान) की, जो जानेमाने घसीटाराम मिठाईवाले के पोते के रूप में मिठाई की दुकान चलाता है। बीवी के इंतकाल के बाद उसकी दुनिया अपनी बेटी तारिका (राधिका मदान) के इर्द-गिर्द ही घूमती है। बेटी का बचपन से सपना है कि वह लंदन पढ़ने जाए। बेटी को पालने-पोसने और मिठाई की दुकान चलाने के साथ-साथ उसे अपने दूसरे घसीटाराम भाई-बंधुओं के साथ अदालत में नाम और संपत्ति के मुकदमे भी लड़ने पड़ते हैं। इन मुकदमों में उसका कजिन भाई गोपी (दीपक डोबरियाल) उसके जी का जंजाल बना हुआ है। तारिका ग्रैजुएट होने के साथ लंदन जाने के अपने सपने को पूरा करने के लिए कॉलेज की टॉपर बनने के लिए कमर कस लेती है।


आखिरकार वह दिन भी आ जाता है, जब तारिका को आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाने का मौका मिल जाता है। अपनी बेटी को बेइंतहा प्यार करनेवाला पजेसिव पिता चंपक तारिका के ख्वाबों को हकीकत का जामा पहनाने के लिए उसके साथ चल पड़ता है। इस सफर में गोपी भी उसका साथ देता है, मगर लंदन पहुंचने के बाद हालात कुछ ऐसे बनते हैं, जिनके बारे में चंपक और गोपी ने सोचा भी नहीं था।


अंग्रेजी मीडियम से पहले आई इरफान खान की हिंदी मीडियम में निर्देशक साकेत चौधरी ने भाषा के स्तर पर बंटे हुए समाज के प्रासंगिक विषय को छुआ था, यहां निर्देशक होमी अदजानिया कुछ कदम आगे बढ़कर यंग जनरेशन के जरिए विदेशों के आकर्षण के साथ-साथ बाप-बेटी के रिश्ते की पड़ताल भी करते नजर आते हैं। फिल्म का फर्स्ट हाफ बहुत ही मनोरंजक और कसा हुआ है, मगर सेकंड हाफ में कहानी ड्रैग होने लगती है। मध्यांतर के बाद कई ट्रैक्स और चरित्रों की एंट्री होती है। क्लाइमैक्स थोड़ा नाटकीय है, जिसका अंदाजा पहले ही हो जाता है। मगर होमी की खूबी यह है कि कॉमिक एलिमेंट के बावजूद फिल्म को उन्होंने लाउड होने से बचाए रखा। छोटे शहर की मानसिकता, बोलचाल और पहनावे को उन्होंने किरदारों के साथ खूबसूरती से बुना है। सचिन-जिगर और तनिष्क बागची का संगीत औसत है।


जितने समय तक इरफान परदे पर रहते हैं, अपने बॉडी लैंग्वेज, कमाल की कॉमिक टाइमिंग, अपने उदयपुरी एक्सेंट और जज्बाती दृश्यों से आपको बांधे रखते है। उनकी अभिनय अदायगी इतनी लाजवाब है कि आपको अहसास ही नहीं होता कि कैंसर जैसी बीमारी से रिकवर होते हुए उन्होंने यह फिल्म शूट की होगी। पिता के रूप में उनके कुछ दृश्य आंखें नम कर जाते हैं। बेटी के तौर पर राधिका मदान ने इरफान को हर तरह से कॉमप्लिमेंट किया है। एक बागी, मासूम, सपने देखनेवाली और पिता को प्यार करनेवाली राधिका की भूमिका में कई परतें हैं, हर परत को उन्होंने ईमानदारी से निभाया है। पिता-पुत्री के रूप में उनकी केमिस्ट्री खूब जमी है, तो भाई के रूप में दीपक डोबरियाल ने इरफान के साथ दमदार जुगलबंदी पेश की है। अपने किरदार के जरिए वे खूब मजे करवाते हैं। अपनी दमदार स्क्रीन प्रजेंस से करीना आते ही परदे पर छा जाती हैं, मगर दो -चार दृश्यों में उन्हें वेस्ट कर दिया गया है। पंकज त्रिपाठी छोटे-से रोल में याद रह जाते हैं। सहयोगी भूमिकाओं में डिंपल कपाड़िया, तिलोत्तमा शोम, रनवीर शौरी, कीकू शारदा आदि ने अपना पार्ट मजेदार तरीके से निभाया है।

क्यों देखें: इरफान की कमबैक वाली इस फिल्म को दमदार अभिनय और मनोरंजन के कारण एक बार देखना तो बनता है।

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रक्तांचल वेब सीरीज

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आजकल रियल कहानियों पर आधारित क्राइम बेस्ड ड्रामा सीरीज काफी पसंद की जा रही हैं। 'मिर्जापुर', 'सेक्रेड गेम्स', 'अपहरण' और 'पाताल लोक' जैसी पॉप्युलर वेब सीरीज के बाद एक बार फिर ऑडियंस के लिए फ्री स्ट्रीमिंग ओटीटी प्लैटफॉर्म एमएक्स प्लेयर अपनी ऑरिजनल बेब सीरीज 'रक्तांचल' का पहला सीजन लेकर आया है। यह कहानी उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में 80 के दशक के मध्य में उभरते माफिया राज, गैंगवार और वर्चस्व की लड़ाई पर आधारित है।

कहानी: 'रक्तांचल' की कहानी 1984 से शुरू होती है जब गांव के सीधा-सादे और आईएएस बनने की इच्छा रखने वाले विजय सिंह (क्रांति प्रकाश झा) के पिता की हत्या गैंगस्टर वसीम खान (निकितन धीर) के गुंडे कर देते हैं। इसके बाद अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए विजय सिंह पढ़ाई-लिखाई छोड़कर क्राइम की दुनिया में उतर जाता है। वक्त के साथ विजय सिंह की ताकत में इतना इजाफा होता है कि वह सीधे वसीम खान के वर्चस्व को चैलेंज करने लगता है। इन दोनों के गैंगवार से पूर्वांचल में खून की नदियां बहने लगती हैं जिसकी कहानी है 'रक्तांचल'।


रिव्यू: यह कहना गलत नहीं होगा कि बॉलिवुड में अनुराग कश्यप की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' ने ऑडियंस को क्राइम ड्रामा फिल्मों और सीरीज का ऐसा चस्का लगाया है कि एक के बाद एक ऐसी सीरीज दर्शकों के सामने आ रही हैं। 'रक्तांचल' के पहले ही एपिसोड से कहानी आपको बांध लेगी। वेब सीरीज में हीरो विजय सिंह के रोल में क्रांति प्रकाश झा छा गए हैं। 'एमएस धोन: द अनटोल्ड स्टोरी', 'बाटला हाउस' जैसी फिल्मों और टीवी सीरीज 'स्वामी रामदेव- एक संघर्ष' के बाद क्रांति प्रकाश 'रक्तांचल' में अपनी ऐक्टिंग और डायलॉग डिलिवरी से सब पर भारी पड़े हैं। विलन वसीम खान के रोल में निकितन धीर खतरनाक जरूर लगते हैं लेकिन उन्हें अपने फेशल एक्सप्रेशन और डायलॉग डिलिवरी पर काफी काम करने की जरूरत है।

दोनों लीड रोल के अलावा भ्रष्ट राजनेता पुजारी सिंह के किरदार में रवि खानविलकर और वसीम खान के गुंडे सनकी के किरदार में विक्रम कोचर काफी दमदार लगे हैं। रोंजिनी चक्रवर्ती का किरदार सीमा और कृष्णा बिष्ट का किरदार कट्टा काफी देर से आते हैं लेकिन छाप छोड़कर जाते हैं। त्रिपुरारी के किरदार में प्रमोद पाठक ठीकठाक हैं। पॉलिटिशन साहेब सिंह के किरदार को बेहतर बनाया जा सकता था लेकिन इस रोल में दया शंकर पांडे जैसे बेहतरीन कलाकार से ठीक से काम नहीं लिया गया है।

'रक्तांचल' की कहानी को संजीव के रजत, सरवेश उपाध्याय और शशांक राही ने लिखा है। डायरेक्टर रीतम श्रीवास्तव ने 'रक्तांचल' में 80 के दशक के मध्य का माहौल पूरी तरह से बांध दिया है। 80 के दशक के अंत में उत्तर प्रदेश में चली हिंदू-मुस्लिम और राम मंदिर की राजनीति को भी इसमें शामिल किया गया है। 'रक्तांचल' की कहानी अच्छी है लेकिन डायलॉग्स कुछ कमजोर रहे हैं जो दर्शकों पर सीमित प्रभाव छोड़ने में ही सफल होते हैं। कहानी में विजय सिंह की प्रेम कहानी को ठीक से दिखाया जा सकता था जो कुछ सीन में ही सिमटकर रह गई है। 'रक्तांचल' में डाले गए दोनों गाने कहानी की रफ्तार पर ब्रेक लगाते हैं इसलिए उन्हें नहीं भी डाला जाता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। कहानी को ऐसे मोड़ पर खत्म किया गया है जिससे दर्शकों को इसके सेकंड सीजन का इंतजार रहेगा।

क्यों देखें:
क्रांति प्रकाश झा की बेहतरीन ऐक्टिंग देखनी हो और क्राइम, थ्रिलर, ड्रामा सीरीज के शौकीन हैं तो इसे मिस न करें।

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चोक्ड: पैसा बोलता है

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श्रीपर्णा सेनगुप्ता
कोरोना वायरस के कारण हुए लॉकडाउन में सिनेमाघर बंद हो गए हैं और नई फिल्में रिलीज नहीं हो रही हैं। ऐसे में ज्यादातर फिल्म मेकर्स ऑनलाइन अपनी फिल्में रिलीज कर रहे हैं। डायरेक्टर अनुराग कश्यप ने भी अपने लेटेस्ट फिल्म 'चोक्ड: पैसा बोलता है' को ओटीटी प्लैटफॉर्म पर रिलीज किया है।

कहानी: फिल्म की कहानी मुंबई में रहने वाली मिडिल-क्लास फैमिली की है जो अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए पैसों की तंगी से जूझ रहा है। सरिता पिल्लई (सयामी खेर) और उसके पति सुशांत (रोशन मैथ्यू) की है। रोजाना इन दोनों की सुबह रुकी हुई सिंक पर लड़ाई से होती है। इसके बाद हर बार की तरह यह बढ़ती जाती है। सरिता घर के काम के साथ ही बैंक में कैशियर का काम भी करती है जबकि सुशांत कभी किसी नौकरी में टिक नहीं पाता है। एक दिन सरिता को अपनी चोक हुई सिंक के नीचे नोटों के बंडल मिलते हैं। उसे लगाता है कि अब उसके घर की सारी समस्याएं ठीक हो जाएंगी। वह सुशांत को बिना बताए इस पैसे को घर में छिपा देती है लेकिन तभी एक दिन अचानक नोटबंदी की घोषणा हो जाती है।

रिव्यू: अनुराग कश्यप फिल्म के पहले ही फ्रेम से आपको बांधने में कामयाब हो जाते हैं। धीरे-धीरे आप मुंबई के मिडल क्लास माहौल को महसूस करने लगते हैं। फिल्म की कहानी अच्छी है और अनुराग ने एक मिडल क्लास कपल के संबंधों और उनकी जिंदगी को काफी रियलिस्टिक तरीके से दिखाया है। सयामी खेर ने अपने कंधों को फिल्म को पूरी जिम्मेदारी के साथ उठाया है। रोशन मैथ्यू भी सुशांत के किरदार में जमे हैं। पड़ोसियों के किरदार में अमृता सुभाष और राजश्री देशपांडे ने जान डाल दी है।

फिल्म का पहला हाफ तेजी से चलता है जिसमें कैरक्टर्स को पूरी तरह जमाया गया है। सेकंड हाफ थोड़ा स्लो है और इसमें गलत जगहों पर डाले गए गाने फिल्म की कहानी को बाधित करते हैं। 'चोक्ड' का स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स आपको जरूर पसंद आएंगे।

क्यों देखें: अनुराग कश्यप की फिल्मों के शौकीन हैं और एक मिडिल क्लास फैमिली ड्रामा फिल्म पसंद करते हैं तो मिस न करें।

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चिंटू का बर्थडे

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कभी-कभी कुछ फिल्में बिजनस करने के इरादे से नहीं बनाई जाती हैं। इन फिल्मों की कहानी, ऐक्टिंग और ट्रीटमेंट को देखकर आपको अच्छा महसूस होता है। कुछ ऐसा ही है हालिया रिलीज फिल्म 'चिंटू का बर्थडे' के साथ। इस फिल्म को एआईबी वाले तन्मय भट्ट, गुरसिमर खांबा, रोहन जोशी और आशीष शाक्य ने प्रड्यूस किया है। यह फिल्म पिछले काफी समय से तैयार थी लेकिन अब रिलीज हुई है।

कहानी: फिल्म की कहानी साल 2004 से शुरू होती है जबकि इराक में अमेरिकी फौजों को एक साल पूरा हो गया था और सद्दाम हुसैन पर मुकदमा चल रहा था। बगदाद में बिहार के रहने वाले मदन तिवारी (विनय पाठक) अपने परिवार के साथ भी रहते हैं। वैसे तो भारत सरकार ने सभी भारतीयों को इराक से निकाल लिया था लेकिन मदन फर्जी दस्तावेजों और नेपाल के पासपोर्ट पर इराक पहुंचे थे और वहीं फंसे रह गए। मदन के बेटे चिंटू (वेदांत छिब्बर) का छठवां जन्मदिन है और इस मौके पर पार्टी का आयोजन किया जाता है। इसी बीच मदन के घर के पास जोरदार धमाका होता है और वहां 2 अमेरिकी सैनिक आ जाते हैं। मदन का मकान मालिक एक शिया ऐक्टिविस्ट है जिसे अमेरिकी उग्रवादी समझते हैं। इसके बाद अमेरिकी सैनिक मदन के परिवार को बंधक बना लेते हैं। फिर चिंटू के बर्थडे का क्या होगा जो पिछले साल भी नहीं मनाया गया था? इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

रिव्यू: यह कहना गलत नहीं होगा कि फिल्म की पूरी कास्ट ने चाहे वह विनय पाठक हों या 6 साल के चिंटू के रोल में वेदांत, सभी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। विनय पाठक, तिलोतमा शोम और सीमा पहवा हमेशा की तरह अपने बेस्ट पर हैं। बिशा चतुर्वेदी मदन की बेटी लक्ष्मी के रोल में उम्र से ज्यादा मैच्योर लगी हैं जबकि चिंटू के रोल में वेदांत बेहद क्यूट लग रहे हैं। फिल्म के लिए दोनों डायरेक्टर्स की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने इस फिल्म में राजनीति को बिल्कुल भी शामिल नहीं होने दिया और इसे एक हिंसाग्रस्त देश में वहां के लोगों और सैनिकों की मानवीय संवेदनाओं तक ही सीमित रखा है। फिल्म में भारत जाने की छटपटाहट में जूझता मदन तिवारी का परिवार और इराक में हिंसा से परेशान अमेरिकी सैनिकों का अवसाद आपको कहानी के किसी भी कैरक्टर के लिए नेगेटिव फीलिंग आने ही नहीं देता है।

फिल्म की गति थोड़ी धीमी है तो यह कहीं-कहीं आपको कुछ बोझिल लग सकती है लेकिन चूंकि फिल्म छोटी है तो इसे मैनेज किया जा सकता है। फिल्म में हिंदी, इंग्लिश और अरबी में डायलॉग्स हैं तो सबटाइटल नहीं पढ़ने वालों को थोड़ी दिक्कत हो सकती है। किसी राजनीतिक चश्मे को पहनकर फिल्म देखना चाहते हों तो बेहतर है कि इसे न देखें।

क्यों देखें: बेहतरीन ऐक्टिंग से सजी मानवीय संवेदनाओं से भरपूर फिल्म है।

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गुलाबो सिताबो

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Pallabi Dey Purkayastha
स्टोरी:
डायरेक्टर शूजित सरकार की यह कहानी है फातिमा महल की मालकिन के पति मिर्जा (अमिताभ बच्चन) और उसके एक जिद्दी किराएदार बांके रस्तोगी (आयुष्मान खुराना) की, जिनके बीच लंबे समय से चले आ रहे झगड़े में कई और लोग अपना फायदा लूटने पहुंच जाते हैं।

रिव्यू: लखनऊ में मौजूद 100 साल पुरानी हवेली अपने जर्जर हालत में है और टूटने के कगार पर पहुंच चुका है। इस हवेली में कई परिवार 30-70 रुपये जितने मामूली पैसे देकर वहां किराए पर रहता है। वहां बाकी सभी लोगों के बीच में एक ही 'कीड़ा' है जो न तो किराया देता है और न ही वहां से जाता है और वह है- बांके, जिनका हमेशा एक ही बहाना रहता है- मैं गरीब हूं।


मिर्जा इन सबमें सबसे अधिक गुस्सैल हैं। वह 78 साल के खूंसट, शरारती व्यक्ति हैं जिसकी एक ही ख्वाहिश है कि वह उस हवेली के कानूनी मालिक बन जाएं और इसी कोशिश में वह हमेशा लगे भी रहते हैं। इन सबके बीच बांके एक दिन कॉमन टॉयलेट की दीवार को तोड़ देता है, जिसके बाद मिर्जा अपने इस फसाद को निपटाने पुलिस स्टेशन पहुंचता है।

इसी बीच एंट्री होती है आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (लखनऊ सर्कल) के मिस्टर गणेश मिश्रा (विजय राज) की। गणेश धौंस दिखाने वाला एक चालाक ऑफिसर है, जो यह भांप लेता है कि यह जर्जर खंडहर नैशनल हैरिटेज प्रॉपर्टी (शायद नहीं भी) बन सकता है। वह बांके को कन्विन्स करता है कि कैसे उसका प्लान उनके (बांके) और बाकी के किराएदारों के लिए बेहतर साबित हो सकता है। ...लेकिन मिर्जा भी बेवकूफ नहीं हैं और वह भी अपना सीक्रेट पाशा (ब्रिजेन्द्र काला) फेंकते हैं, जो कि प्रॉपर्टी के लफड़ों को सुलझाने में माहिर है।

अब यह खंडहर लड़ाई-झगड़ों का अड्डा बन चुका है, आखिर क्यों यह बिखरने के लिए तैयार यह खंडहर यहां रहने वाले लोगों से ज्यादा अहम हो गया है? शूजित सरकार की 'गुलाबो सिताबो' समाज और लोगों की सोच पर एक व्यंग्य की तरह है।

जूही चतुर्वेदी के डायलॉग और स्क्रीनप्ले कुशलता और परिहास से पूर्ण है, जो किरदारों के सनकी और मजेदार नेगेटिव कैरक्टर को पर्दे पर दिखाने में सफल है। मिर्जा जिसमें इस प्रॉपर्टी को लेकर जबरदस्त लालच और इसे लेकर वह शांत नहीं बैठता। वहीं बांके एक गरीब लड़का है जो फैमिली की जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा हुआ है। वह मिर्जा को खीझ दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार नजर आता है।

फिल्म में एक और अजीब जोड़ी है मिर्जा और फातिमा बेगम (फारुख जाफर) की, जो 15 साल से अलग रह रहे हैं, एक ऐसी शादी जिसकी अपनी ही विचित्र कहानी है। हालांकि इस फिल्म में मिर्जा और फातिम के सीन काफी कम हैं, यदि यह थोड़े और होते तो यह और भी मजेदार होते।

कहानी से हमें यही सीखने को मिलती है कि जिंदगी में अधिक की चाहत ठीक है, लेकिन बहुत ज्यादा लालच आपको सही जगह लेकर नहीं जाता। फिर चाहे वह किसी का दिल हो, घर हो या फिर महल।

क्यों देखें: अमिताभ बच्चन और आयुष्मान खुराना की बॉन्डिंग पहली बार साथ नजर आई है। इसके अलावा एक छोटे शहर से जुड़ी मजेदार कहानी का लुत्फ उठाना चाहते हैं तो फिल्म आपको देखनी चाहिए।

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पेंगुइन

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एम सुगंध
नैशनल फिल्म अवॉर्ड जीत चुकीं ऐक्ट्रेस कीर्ति सुरेश की नई फिल्म 'पेंगुइन' ऑनलाइन रिलीज कर दी गई है। यह एक सस्पेंस-थ्रिलर-ड्रामा फिल्म है जिसमें एक प्रेगनेंट महिला अपने खोए हुए 6 साल के पहले बच्चे की खोज में लगी हुई है और इसी दौरान उसके साथ बहुत सारी अप्रत्याशित घटनाएं होती हैं। इस फिल्म का काफी समय से इंतजार किया जा रहा था और यह तमिल और तेलुगू भाषाओं में रिलीज की गई है।

कहानी: एक बच्चा जंगल में लगी एक मूर्ति की ओर जाता है, उसका पालतू कुत्ता उसे ऐसा करने से रोकता है लेकिन तभी एक चार्ली चैपलिन का मास्क पहने व्यक्ति उस बच्चे को मार देता है। यहीं से शुरू होती है 'पेंगुइन' की कहानी। हत्यारा बच्चे की बॉडी को लेकर झील में चला जाता है। इस बच्चे की मां रिदम (कीर्ति सुरेश) घटना के लिए खुद को जिम्मेदार मानती है। घटना का इतना गहरा असर होता है कि उसकी अपने पति रघु (लिंगा) से शादी भी खतरे में पड़ जाती है। इसके बाद रिदम की शादी गौतम (माधमपट्टी रंगराज) से हो जाती है। पुलिस को लगता है कि वह 6 साल का बच्चा मर गया है लेकिन रिदम ऐसा नहीं मानती है। फाइनली रिदम अपने बच्चे को कैसे ढूंढती है और उस मास्क वाले हत्यारे से कैसे बचती है, इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

रिव्यू: डायरेक्टर ईश्वर कार्तिक की फिल्म पहले सीन से ही दर्शकों को बांध लेती है। कीर्ति सुरेश ने एक प्रेगनेंट महिला और अपने खोए हुए बच्चे की मां का किरदार बेहतरीन तरीके से निभाया है। फिल्म का पहला हाफ दर्शकों को बांधे रखता है और चीजें तेजी से बदलती हैं। इंटरवल तक दर्शकों को कई चौंकाने वाले सीन मिलेंगे। फिल्म में सस्पेंस क्रिएट करने की काफी कोशिश की गई है लेकिन इसे ठीक से लिखा नहीं गया है। बाद में फिल्म के कुछ दृश्य जरूरत से ज्यादा नाटकीयता से भरे हुए लगते हैं। फिल्म में सपोर्टिंग कास्ट के करने के लिए कुछ रखा ही नहीं गया है। लिंगा ओवरऐक्टिंग करते लग रहे हैं जबकि माधमपट्टी रंगराज ऐक्टिंग करने में ही असहज लग रहे हैं। बाद में ट्विस्ट के नाम पर दर्शक खुद को ठगा सा महसूस कर सकते हैं।

क्यों देखें: नैशनल अवॉर्ड विनिंग ऐक्ट्रेस कीर्ति सुरेश की दमदार परफॉर्मेंस देखनी हो तो देख सकते हैं।

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बुलबुल

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रेणुका व्‍यावहारे
कहानी: 'बुलबुल' की कहानी का प्‍लॉट 19वीं सदी का बंगाल है। बुलबुल (तृप्ति‍ डिमरी) एक ठकुराइन है। उसकी रहस्यमयी लेकिन दमदार छव‍ि है। बुलबुल के मन के भीतर एक तूफान घुमरता रहता है। सत्‍या ठाकुर (अविनाश तिवारी), बुलबुल का हमउम्र है। वह लंदन से लौटता है। गांव का माहौल बदल चुका है। सत्‍या को आशंका होती है क‍ि बुलबुल कुछ छ‍िपा रही है। इस बीच गांव में कुछ अजीब घटनाएं होती हैं। रहस्‍यमई तरीकों से लोगों की मौत का सिलसिला शुरू होता है। इस सब के पीछे एक डायन का हाथ बताया जाता है। लेकिन इन सब के केंद्र में ठाकुर की हवेली भी है। क्‍या इस हवेली में कोई राज छुपा है?

रिव्‍यू:'बुलबुल' सिनेमा की कई शैलियों का मिश्रण है। अन्विता दत्त की यह कहानी धीमी गति से बढ़ती है, काल्पनिक नाटक तो है ही, इसमें रहस्‍य की दुनिया भी है। हालांकि, बतौर दर्शक आज कहानी का अनुमान लगा लेते हैं। इसलिए इस बात की उम्मीद न करें कि यह आपको थ्र‍िल करेगी। लेकिन हां, फॉर्म्‍यूला अच्‍छा है। कहानी में लोकगीतों का संदर्भ है। यह कहानी बीते हुए कल और आज का वक्‍त दोनों की बात करती है। कहानी के केंद्र में वही पुराना सवाल है- सही-गलत, अच्‍छा-बुरा, भगवान या असुर क्या ये एक ही सिक्के के दो चेहरे हैं?

यदि आप किसी ऐसे थ्र‍िलर की अपेक्षा रखते हैं जो आपको बांधकर रखे, तो थोड़ी निराशा हो सकती है। 'बुलबुल' एक उदास सामाजिक त्रासदी की कहानी है। बेड़‍ियों में जकड़े अस्तित्व, टूटे हुए सपने, खोया हुआ बचपन, प्यार पाने की चाह और वीभत्स यौन और भावनात्मक शोषण।


त्रासदी आपको बना या बिगाड़ सकती है। एक फिल्‍म के तौर पर 'बुलबुल' इसी विचार को आगे बढ़ाती है। साथ ही यह उस संस्‍कृति का विरोध करती है, जिसमें महिलाएं एक खामोशी की चादर ओढ़े रखती हैं। फिल्‍म आपको याद दिलाती है कि आप असल में क्‍या कर सकते हैं, एक बार यदि आप निर्णय कर लेते हैं कि अन्याय का बदला लेना है, तो कुछ भी मुमकिन है।

हालांकि, फिल्‍म के दौरान लोगों को तड़पता देखना, आपको परेशान करतो है। फिल्म की अपनी एक गति है और वह उसी में आगे बढ़ती है। ऐसे में कई बार आपकी आंखें स्‍क्रीन से अलग हट जाती हैं। फिल्‍म में जब रिश्तों की बात आती है, तब वहां भी आपको कहानी अधूरी सी लगती है। ऐसा लगता है कि बहुत सी बातें अनकही रह गई हैं। फिल्‍म के कैरेक्‍टर्स को समझने के लिए शायद कुछ और बताना समझना जरूरी था। फिल्‍म में रात के सीन्‍स में लाल रंग की रोशनी का खूब इस्‍तेमाल हुआ है। लेकिन यह प्रभावी नहीं लगता। एक पीरियड ड्रामा के लिहाज से फिल्‍म का प्रोडक्शन डिजाइन भी थकाऊ है। फिल्‍म की कहानी में थोड़ी कसावट और होती तो यह बेतहर असर छोड़ती।

दूसरी ओर, तृप्ति‍ डिमरी और उनके 'लैला मजनू' को-स्‍टार अविनाश तिवारी इस फिल्‍म में फिर साथ दिखे हैं और यह जोड़ी असर द‍िखाती है। 'लैला मजनू' पूरी तरह अविनाश की फिल्‍म थी, लेकिन 'बुलबुल' तृप्‍त‍ि के कंधों पर टिकी है। उनकी ऐक्‍ट‍िंग में वह दम दिखता भी है। राहुल बोस, पाउली दाम और परमब्रता चट्टोपाध्‍याय भी लीड कैरेक्‍टर की तरह ही प्रमुखता से फिल्‍म को संभालते नजर आते हैं। अमित त्र‍िवेदी ने फिल्‍म में डरावना और भुतहा म्‍यूजिक दिया है, जबकि वीरा कपूर ने कॉस्‍ट्यूम का जिम्‍मा उठाया। दोनों ने ही अपना काम संजीदगी से किया है।

'बुलबुल' की प्रड्यूसर अनुष्‍का शर्मा और कर्णेश शर्मा हैं। इन दोनों की इस मायने में प्रशंसा करनी होगी कि लीक से हटकर एक डार्क हॉरर थ्र‍िलर को इन्‍होंने दर्शकों तक लाने का काम किया है। अन्‍व‍िता दत्त की यह फिल्‍म आपको कई मौकों पर राज कपूर की 'प्रेम रोग' की भी याद दिलाती है। यह फिल्‍म भी समाज में मौजूद कुरीतियों के ख‍िलाफ थी। एक ऐसी व्‍यवस्‍था जो महिलाओं पर पुरुषों के स्वामित्व को द‍िखाती है।

यदि आपको यह मानकर चलते हैं कि समानता के लिए महिलाओं की लड़ाई खत्म हो गई है। तो 'बुलबुल' देख‍िए, आप इस पर नए सिरे से विचार करने लगेंगे।

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फुटलूज- अ स्टोरी ऑफ बिलॉन्गिंग (डॉक्यूमेंट्री)

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अपना घर छोड़ना क्या होता है यह शायद आप तब तक नहीं समझ सकते जबतक कि आपको आपके देश से खदेड़ ना दिया जाए। जी हां, यहां देश से खदेड़ दिए जाने की बात हो रही है, शरणार्थी बनने को मजबूर करने वाली स्थितियों के लिए। शरणार्थियों के इतिहास में जाएंगे तो आपको बहुत सी ऐसी द्रवित करने वाली कहानियां मिलेंगी जिन्होंने इंसानियत को शर्मसार कर दिया। सीरिया से यूरोप जाने वाले शरणार्थियों में एक तीन साल के बच्चे आयलान कुर्दी का शव भूमध्य सागर के तट पर देखकर पूरी दुनिया शर्मसार हो गई थी। अगर आपको इससे फर्क पड़ता है तो 'फुटलूज- अ स्टोरी ऑफ बिलॉन्गिंग' वही कहानी है जो शरणार्थियों को इंसानियत के चश्मे से देखती है न कि राजनीतिक चश्मे से। मुद्दा यह है कि जो आदमी आपसे केवल शरण मांग रहा है क्या केवल उसका धर्म देखकर इसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए?

रिव्यू: इतिहास गवाह है कि राजनीति पर धर्म का प्रभाव सबसे ज्यादा रहा है। धर्म जो इंसान को केवल जीने का रास्ता नहीं दिखाता बल्कि उसकी सोच भी बदल सकता है। अंत से शुरू करते हैं। महात्मा गांधी कहते थे कि सभी धर्म सही हैं और सभी में कुछ खामियां भी हैं। उन्होंने कहा था कि उन्हें हिंदू धर्म में रहते हुए दूसरे धर्मों का सम्मान करना चाहिए। जो अच्छे हिंदू हैं वो अच्छे हिंदू बनें और जो मुसलमान हैं वो अच्छे मुसलमान। इस फिल्म का मुद्दा यहीं से शुरू होता है कि क्या आप जिस धर्म को मानते हैं उसकी इंसानियत आपको याद है? भारत में गांधी के नाम पर राजनीति करने वाले बहुत हैं लेकिन उनको फॉलो कितने लोग कर पाते हैं, इस पर डॉक्यूमेंट्री में तीखा प्रहार किया गया है।

गांधी आज भी दुनियाभर में भारत की पहचान हैं। यह और बात है कि जो लोग गांधी को नहीं मानते हैं उन्हें भी दुनियाभर में जाने के बाद गांधी के नाम का ही सहारा लेना पड़ता है। यह डॉक्यूमेंट्री लगभग 3 साल में बनाई गई है जिसमें भारत में म्यांमार से आए रोहिंग्या और पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों की परेशानियां बेलाग रखी गई हैं। शरणार्थी चाहे कहीं का भी हो वह बुरी स्थिति से अपने बेहतर भविष्य की तलाश में दूसरे देश जाता है और इसी मुद्दे पर यहां हर शरणार्थी से बात की गई है। मुख्य बात यह है कि कैसे राजनीति में धर्म के जरिए शरणार्थियों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है, यह इसमें बहुत बेहतर तरीके से दिखाया गया है। देखें, डॉक्यूमेंट्री का ट्रेलर:

डॉक्यूमेंट्री सीधे रोहिंग्या की समस्या पर उनके इतिहास और वर्तमान स्थिति से बात करना शुरू करती है। ठीक उसी टाइमलाइन में पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों के साथ हुई नाइंसाफी भी दिखाई गई है। डॉक्यूमेंट्री में रोहिंग्या लोगों की स्थिति को साफ-साफ दिखाया गया है। ये लोग भारत से नागरिकता नहीं मांग रहे, बस शरण मांग रहे हैं। दूसरी तरफ, पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थी भी हैं जो खुद बहुत बुरी स्थिति में हैं लेकिन वे भारत की नागरिकता मांग रहे हैं और उनका किस तरह राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है, यह इस डॉक्यूमेंट्री को देखने पर पता चलता है। फिल्म में नागरिकता संशोधन विधेयक और एनआरसी पर भी खुलकर बात की गई और उसके पक्ष को भी स्पष्ट तरीके से रखा गया है।

कुछ कमजोर कड़ियां हैं: यह डॉक्यूमेंट्री बहुत लंबी है। माना जा सकता है कि एक लंबे समय में फिल्माई गई है लेकिन फिर भी इसकी लंबाई आपको अखर जाएगी। शायद बहुत सी जगह टाइट एडिटिंग की जा सकती थी तो इसे कम से कम 15 मिनट तक छोटी किया जा सकता है। डायरेक्टर ने फिल्माया बहुत अच्छा है लेकिन बेहतर होता कि हर आदमी के वक्तव्य के साथ उसकी टाइमलाइन दी जाती। इससे पता चलता कि राजनीतिक माहौल बदलने के बाद लोगों की सोच में कितना और कैसे परिवर्तन आ रहा है। इस डॉक्यूमेंट्री में पहले ही सब कुछ साफ कर दिया गया है तो अंत में कुछ दृश्यों को दिखाने से बचा जा सकता था।

कुछ अच्छा भी है: यह डॉक्यूमेंट्री आपको शरणार्थियों के लिए अपनाया जाने वाला दोहरा रवैया खुलकर सामने रखती है। फिल्म में बहुत ऐसे सीन हैं जो आपको वास्तव में शरणार्थियों के लिए सोचने को मजबूर कर देते हैं। एक सीन में कुत्ते के बच्चे को कपड़े में सिमेटा हुआ शरणार्थी बच्चा, जली हुई रोहिंग्या बस्ती में अपना घर का सामान ढूंढती लड़की या अपने जले घर की अलमारी पीटता हुआ बच्चा जरूर एक इंसान के तौर पर आपको सोचने को मजबूर करेंगे। डॉक्यूमेंट्री की रिसर्च पत्रकार रोहित उपाध्याय ने की है जो उसके कॉन्टेंट में दिखती है। गुलशन सिंह का डायरेक्शन अच्छा है। खास है फिल्म में इस्तेमाल किया गया बैकग्राउंड म्यूजिक जो ताजदार जुनैद ने दिया है और तारीफ के काबिल है।

क्यों देखें: किसी भी राजनीतिक या धार्मिक चश्मे के बगैर इसे देख सकते हैं क्योंकि यहां बात ईमानदार इंसानियत की है धर्म की नहीं।

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वर्जिन भानुप्रिया

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साल 2015 में मिस इंडिया रह चुकीं उर्वशी रौतेला ने साल 2013 में सनी देओल के ऑपोजिट 'सिंह साहब दि ग्रेट' से बॉलिवुड में डेब्यू किया था। इसके बाद उर्वशी ने 'सनम रे', 'ग्रेट ग्रैंड मस्ती', 'हेट स्टोरी 4' और 'पागलपंती' जैसी फिल्मों में काम किया है। अब यह पहली फिल्म है जो पूरी तरह उर्वशी के कंधों पर टिकी है। उम्मीद तो थी कि शायद उर्वशी इस बार अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवाकर मानेंगी लेकिन इसमें भी वह कुछ खास कमाल नहीं दिखा सकी हैं।

कहानी: भानुप्रिया अवस्थी (उर्वशी रौतेला) एक पढ़ाई में होनहार मिडिल क्लास कॉलेज गोइंग लड़की है। उसकी मां मधु (अर्चना पूरन सिंह) और पिता विजय (राजीव गुप्ता) में बिल्कुल नहीं बनती। भानुप्रिया अपनी जिंदगी में अकेली है और उसका कोई बॉयफ्रेंड नहीं है और अभी तक वह वर्जिन है जिसके लिए उसकी खास सहेली रकुल (रुमाना मोला) हमेशा उसे चिढ़ाती रहती है। घर के अकेलेपन और जिंदगी में प्यार की कमी से जूझती भानुप्रिया को राजीव (सुमित गुलाटी) के रूप में एक अजीब लड़का मिलता है लेकिन उसका दिल सड़कछाप लड़के शर्तिया (गौतम गुलाटी) पर आ जाता है। लेकिन इन दोनों से भी निराश होने के बाद भानुप्रिया अरेंज मैरिज के लिए अपने पैरंट्स को बोल देती है। अब वर्जिन भानुप्रिया की शादी होती है या नहीं और आगे क्या होता है इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

रिव्यू: फिल्म के पहले सीन में उर्वशी रौतेला के अलावा पुलिस इंस्पेक्टर के रूप में ब्रिजेंद्र काला दिखाई देते हैं तो आपको थोड़ी सी उम्मीद बंधती है। लेकिन सीन दर सीन यह फिल्म अपनी पटरी से उतरती जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि फिल्म में उर्वशी खूबसूरत लगी हैं और उन्होंने मेहनत भी की है लेकिन एक ऐक्टर के तौर पर अभी तक वह प्रॉमिसिंग नहीं लगती हैं। फिल्म में कुछ अच्छे कलाकार हैं जिनका ठीक से इस्तेमाल नहीं किया गया है। ब्रिजेंद्र काला, अर्चना पूरन सिंह और राजीव गुप्ता अपनी फिल्मों में कॉमिक टाइमिंग के लिए जाने जाते हैं लेकिन भानुप्रिया पर फोकस करने के चक्कर में इन कलाकारों को ठीक से स्पेस नहीं दिया गया है। हालांकि भानुप्रिया की सहेली रकुल के रोल में रुमाना मोला और राजीव के रोल में सुमित गुलाटी अच्छे लगे हैं। गौतम गुलाटी अपने रोल के लिए मिसफिट हैं और बेहतर हो कि कहीं ऐक्टिंग क्लास जॉइन कर लें।

फिल्म की कहानी अच्छी है लेकिन लचर स्क्रीनप्ले और द्विअर्थी डायलॉग्स ने इसे खराब कर दिया है। आजकल ऐसे बोल्ड टॉपिक्स पर बेहतरीन फिल्में बन रही हैं जिन्हें फैमिली संग बैठकर देखा जा सकता है। आयुष्मान खुराना की विकी डोनर, शुभ मंगल सावधान और अक्षय कुमार की गुड न्यूज जैसी फिल्में भी बोल्ड टॉपिक्स पर बनी हैं लेकिन पता नहीं क्यों डायरेक्टर अजय लोहान को इस कहानी पर एक 'ए' सर्टिफिकेट की फिल्म बनाने की सूझी। फिल्म का म्यूजिक ऐसा नहीं है कि आपको देखने के बाद कोई गाना याद रहे।

क्यों देखें: उर्वशी रौतेला की सुंदरता के कायल हैं और घर पर फ्री हैं तो इस फिल्म को देख सकते हैं।

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दिल बेचारा

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सुशांत सिंह राजपूत अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनकी आखिरी फिल्म 'दिल बेचारा' आज रिलीज हो गई है। फैन्स को सुशांत की इस फिल्म का बेसब्री से इंतजार था। यह फिल्म इंग्लिश नॉवल और फिल्म 'द फॉल्ट इन ऑवर स्टार्स' पर बनाई गई है। सुशांत ने अपनी सारी फिल्में जिंदादिली वाली की हैं और यह फिल्म भी उससे अलग नहीं है। अगर आप फिल्म की कहानी जानते हैं तो फिर भी यह देखने लायक है।

कहानी: एक लड़की है किजी बसु (संजना सांघी) जो अपनी मां (स्वास्तिका मुखर्जी) और पिता (साश्वता चटर्जी) के साथ रहती है। किजी को थायरॉयड कैंसर है और वह हर समय अपने ऑक्सीजन सिलेंडर, जिसे वह पुष्पेंदर कहती है, के साथ चलती है। इलाज के दौरान किजी की मुलाकात एक बेहद मस्तमौला लड़के इमैनुअल राजकुमार जूनियर यानी मैनी (सुशांत सिंह राजपूत) से होती है जो खुद एक कैंसर ऑस्ट्रियोसर्कोमा से जूझ रहा है और इसके कारण उसकी एक टांग भी चली गई है। किजी अपनी मौत का इंतजार करती हुई एक अकेली लड़की है जिसकी जिंदगी में मैनी खुशियां लेकर आता है। किजी का एक फेवरिट सिंगर है जिसका नाम अभिमन्यु वीर सिंह है लेकिन उसका आखिरी गाना अधूरा है। किजी अपनी जिंदगी में अभिमन्यु से मिलना चाहती है और उसकी यह इच्छा खुद कैंसर से जूझता मैनी पूरी करता है और उसे पैरिस लेकर जाता है। पैरिस जाने से पहले किजी की तबीयत बिगड़ जाती है। अब किजी को मरने से डर लगने लगा है क्योंकि उसे मैनी से प्यार हो गया है। किजी को लगता है कि वह मैनी पर बोझ बन रही है लेकिन मैनी किजी को अकेला नहीं छोड़ना चाहता। फिल्म के अंत में क्या होता है, इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

रिव्यू: अगर आप सुशांत के फैन हैं तो बहुत रो चुके उनको याद करके, यह फिल्म आपको सुशांत के लिए हंसना सिखाएगी। सुशांत को देखकर आपका मन खुश हो जाएगा। मैनी के रोल में शायद सुशांत से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था। सुशांत का पहला सीन निश्चित तौर पर फैन्स को इमोशनल कर जाएगा। मैनी एक मस्तमौला लड़का है जिसे किसी का फर्क नहीं पड़ता है। फिल्म देखकर पता चलता है कि सुशांत को हमने तब खोया है शायद जब वो अपने बेस्ट पर थे। उनकी ऐक्टिंग और कॉमिक टाइमिंग गजब की है। सुशांत के फेशल एक्सप्रेशन और डायलॉग डिलिवरी, वॉइस मॉड्यूलेशन सब बेहतरीन है। अपनी पहली ही फिल्म में संजना सांघी ने इतनी अच्छी परफॉर्मेंस दी है कि कहीं से भी नहीं लगता है कि यह उनकी डेब्यू फिल्म है। किजी की ऐंग्री यंग वुमन मां के किरदार में स्वास्तिका मुखर्जी छा गई हैं। एक ऐसी मां जो हर समय अपनी कैंसर से जूझती लड़की का ख्याल रखती है। किजी के पिता के रोल में साश्वता चटर्जी बेहतरीन हैं जो एक बिंदास बाप का किरदार निभा रहे हैं। वह अपनी बेटी की स्थिति समझते हुए भी उसे हर खुशी देते हैं और उनकी आंखों में अपनी बेटी के लिए दुख भी दिखाई देता है। पैरिस में अभिमन्यु के तौर पर मिलते हैं सैफ अली खान जो एकदम बदतमीज और अक्खड़ आदमी है। 2 मिनट के रोल में सैफ अली खान छाप छोड़कर जाते हैं।

फिल्म के गाने 'दिल बेचारा', 'मेरा नाम किजी', 'तुम ना हुए मेरे तो क्या' और 'खुल कर जीने का तरीका' बेहतरीन बन पड़े हैं। फिल्म का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर एआर रहमान ने बेहद खूबसूरत दिया है। फिल्म के गाने पहले ही हिट हो चुके हैं। मुकेश छाबड़ा की डायरेक्टर के तौर पर यह पहली फिल्म है। उनका डायरेक्शन अच्छा है लेकिन टाइटल सॉन्ग को शायद उन्होंने बहुत जल्दी और गलत जगह इस्तेमाल किया है। फिल्म के डायलॉग्स इमोशनल करने वाले हैं और लोकेशंस बेहद खूबसूरत हैं। और अंत में, एक था राजा एक थी रानी दोनों मर गए खत्म कहानी लेकिन इस कहानी और फिल्म दोनों को वह राजा यानी की सुशांत पूरी करता है।

क्यों देखें: अपनी आखिरी फिल्म के आखिरी सीन में भी सुशांत ने अपने फैन्स को उन्हें हंसते हुए याद रखने का संदेश दे दिया है। यह फिल्म सुशांत के लिए सच्ची श्रद्धांजलि है इसलिए मिस न करें।

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शकुंतला देवी

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श्रीपर्णा सेनगुप्ता
पिछले काफी समय से बॉलिवुड में बायॉपिक बनाए जाने का चलन तेजी से आगे आया है। अभी तक केवल मशहूर खिलाड़ियों और ऐक्टर्स पर बायॉपिक बन रही थीं लेकिन रितिक रोशन की 'सुपर 30' के बाद भारत की एक और महान गणितज्ञ शकुंतला देवी पर बायॉपिक बनाई गई है। शकुंतला देवी की कैलकुलेशन करने की स्पीड इतनी तेज थी कि पूरी दुनिया में उन्हें ह्यूमन कंप्यूटर के नाम से जाना जाता था और उनका नाम गिनेस बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में भी दर्ज किया गया था।

कहानी: शकुंतला देवी (विद्या बालन) का जन्म 4 नवंबर 1929 को बेंगलुरु में हुआ था। बगैर किसी फॉर्मल एजूकेशन के शकुंतला देवी की कैलकुलेशन की क्षमता अद्भुत थी और उनके इस हुनर को उनके पिता (प्रकाश बेलावडी) ने पहचान लिया। यूनिवर्सिटी में केवल 6 साल की उम्र में अपनी प्रतिभा दिखाने के बाद शकुंतला देवी केवल 15 साल की उम्र में अपने पिता के साथ लंदन चली गईं। यहां से जो शकुंतला देवी का सफर तय हुआ वो कभी रुका नहीं। उन्होंने पूरी दुनिया में अपनी कैलकुलेशन की क्षमता का लोहा मनवाया। शकुंतला देवी कैलकुलेशन उस दौर में बनने वाले कंप्यूटरों जैसी थी जो कुछ ही सेकंडों में बड़ी से बड़ी संख्या को कैलकुलेट कर लेती थीं। फिल्म में शकुंतला देवी की प्रतिभा और उनकी पर्सनल लाइफ को दिखाया गया है। शकुंतला देवी की बेटी अनुपमा का किरदार सान्या मल्होत्रा निभा रही हैं जो अपनी मां से असंतुष्ट हैं

रिव्यू: फिल्म में शंकुतला देवी की जिंदगी को केवल गणित ही नहीं बल्कि एक महिला और मां के रूप में भीदिखाया गया है। शंकुतला देवी एक निडर और स्वतंत्र सोच की महिला के तौर पर दिखाया गया है जिन्हें अपनी शर्तों के हिसाब से जिंदगी जीती हैं। फिल्म में विद्या बालन का डायलॉग 'मैं कभी नहीं हारती Always remember that' शायद कहीं शकुंतला देवी के ओवर कॉन्फिडेंस को भी दर्शाता है जिसके कारण वह अपनी जिंदगी में इंदिरा गांधी के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ीं और बुरी तरह हारीं। इस तरह शकुंतला देवी गणित के सवाल तो आसानी से सुलझा लेती हैं लेकिन उनकी पर्सनल लाइफ पूरी तरह उलझी हुई है।

फिल्म का फर्स्ट हाफ पूरी तरह से इंगेज करके रखता है जो मजेदार और एंटरटेनिंग है। विद्या बालन पूरी तरह अपने किरदार में रम गई हैं और उन्होंने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी है। लंदन जाने के बाद विद्या बालन का मेकओवर जबर्दस्त तरीके से फिल्माया गया। फिल्म में शकुंतला देवी के पति परितोष बनर्जी का किरदार जिशू सेनगुप्ता ने निभाया है और अपने किरदार में काफी अच्छे लगे हैं। अनुपमा के किरदार में सान्या मल्होत्रा और अनुपमा के पति के किरदार में अमित साध ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। डायरेक्टर अनु मेनन ने बेहद ईमानदार तरीके से शकुंतला देवी की जिंदगी को फिल्म में दर्शाया है। फिल्म में 1950 और 1960 के दशक को अच्छी तरह से फिल्माया गया है। फिल्म में सचिन-जिगर का म्यूजिक अच्छा है।

क्यों देखें: यह केवल शंकुतला देवी की बॉयपिक नहीं बल्कि एक भरपूर मनोरंजक फिल्म है।

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