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Channel: Movie Reviews in Hindi: फिल्म समीक्षा, हिंदी मूवी रिव्यू, बॉलीवुड, हॉलीवुड, रीजनल सिनेमा की रिव्यु - नवभारत टाइम्स
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सनम रे

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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com

अजब संयोग है कि पिछले सप्ताह रिलीज हुई म्यूजिकल लव-स्टोरी 'सनम तेरी कसम' में भटके हीरो को राह पर लाने के लिए हिरोइन आखिर में एक बहुत बड़ा कदम उठाती है, वहीं दिव्या खोसला की इस म्यूजिकल लव-स्टोरी में हिरोइन की जान बचाने के लिए हीरो ऐसा कुछ करता है जो उसके प्यार को अमर बना देता है। दोनों फिल्मों में सच्चे प्यार को हासिल करने का तरीका काफी हद तक मिलता-जुलता है।

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यंग डायरेक्टर दिव्या खोसला की बात करें तो उनकी पहली फिल्म यारियां बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रही। दिव्या ने बजट का बड़ा हिस्सा दिल को छू लेने वाली लोकेशन में शूट करने में खर्च किया है। काश दिव्या कमाल की लोकेशन और फिल्म को बेहतर बनाने के लेटेस्ट तकनीक के साथ स्क्रीनप्ले और फिल्म की धीमी रफ्तार पर भी ध्यान देतीं तो यकीनन उनकी यह लव-स्टोरी बॉक्स ऑफिस पर पिछली फिल्म से आगे निकल पाती।

कहानी : हिमाचल की बर्फीली वादियों से ढके एक छोटे से कस्बानुमा गांव में आकाश (पुलकित सम्राट) अपने दादा (ऋषि कपूर) के साथ रहता है। बचपन से ही आकाश को सच्चे प्यार की तलाश है, ऐसे में एक दिन आकाश का दादा उसे बताता है कि उसे यहां से 500 कदम की दूरी पर उसका सच्चा प्यार मिलेगा। आकाश को श्रुति से प्यार हो जाता है। हालांकि, आकाश दादा के साथ करियर बनाने के लिए अपना घर छोड़कर शहर चला जाता है। ऐसे में बचपन का प्यार वहीं छूट जाता है। यहां से कहानी में लव-ट्राइएंगल का ट्विस्ट आता है। आकाश को कंपनी का बॉस (मनोज जोशी) विदेश में एक बड़ी डील को फाइनल करने के मकसद के साथ विदेश भेजता है। यहां आकाश की मुलाकात अनुष्का (उर्वशी रातौला) से होती है, वह आकाश से इकतरफा प्यार करने लगती है। यहीं पर आकाश की मुलाकात एक अडवेंचर ट्रिप के दौरान श्रुति (यामी गौतम) से होती है। कुछ मुलाकातों के बाद आकाश को लगता है जैसे उसे उसका सच्चा प्यार यहां मिल गया है, लेकिन अडवेंचर ट्रिप खत्म होने के बाद श्रुति आकाश से कहती है कि उनका साथ बस यहां तक का था, अब वह दोबारा नहीं मिल पाएंगे।

देखिए: फिल्म 'सनम रे' का ट्रेलर यहां



ऐक्टिंग : 'फुकरे' फेम पुलकित सम्राट ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाने की कोशिश की है। हालांकि, कमजोर डायलॉग डिलीवरी उनकी इस मेहनत को कम करती है। यामी गौतम का किरदार गांव की एक मासूम पहाड़न लड़की का है, लेकिन चेहरे और एक्सप्रेशन से यामी कहीं भी गांव की पहाड़ी लड़की नहीं लगती। वहीं ऑन स्क्रीन पुलकित और यामी की केमिस्ट्री कमजोर और बेहद ठंडी है। एक बार फिर ऋषि कपूर ने अपना किरदार अच्छा निभाया है। उर्वशी कई सीन में जहां यामी पर भारी नजर आईं और कई बार यामी से ज्यादा खूबसूरत भी।



निर्देशन : दिव्या ने इस छोटी सी लव-स्टोरी को पेश करने के लिए स्क्रिप्ट पर ज्यादा ध्यान देने की बजाए लोकेशन और गानों को खूबसूरती से फिल्माने में दिया है। ऐसे में दो घंटे की इस फिल्म के साथ भी दर्शक पूरी तरह से बंध नहीं पाते। दिव्या ने ऋषि कपूर जैसे मंझे हुए कलाकार से अच्छा काम लिया, लेकिन यामी गौतम के किरदार को संवारने में ज्यादा फोकस नहीं किया।



संगीत : फिल्म का म्यूजिक रिलीज से पहले ही यंगस्टर्स की जुबां पर है, फिल्म के कई गाने रिलीज से पहले कई चार्ट में टॉप फाइव में शामिल हो चुके हैं। टाइटल सॉन्ग 'सनम रे' का फिल्मांकन गजब और दिल को छूने वाला है।



क्यों देखें : अगर आप स्क्रीन पर खूबसूरत लोकेशन पर फिल्माए गानों को देखना चाहते है तो फिल्म एकबार देख सकते हैं। कमजोर स्क्रिप्ट की वजह से यह छोटी सी लव-स्टोरी आपके दिल को छू नहीं पाती।

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नीरजा

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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com

फ्लाइट अटेंडेंट नीरजा भनोट की सच्ची कहानी पर बनने वाली इस फिल्म को बनाने की प्लानिंग करीब दस साल पहले हुई। कहानी पूरी होने के बावजूद किसी न किसी वजह से फिल्म की शूटिंग टलती रही। नीरजा की रियल लाइफ स्टोरी की रील लाइफ में दर्शाया गया है। चंडीगढ़ की रहने वाली नीरजा ने 5 सितंबर 1986 को हाइजैक हुई पैन एम फ्लाइट 73 में सवार 359 यात्रियों को अपनी सूझबूझ और बहादुरी के दम पर बचाया था, लेकिन खुद शहीद हो गईं थीं। ऐसा पहली बार हुआ जब भारत सरकार ने सिर्फ 23 साल की उम्र में किसी को अशोक चक्र दिया हो, लेकिन नीरजा भनोट को यह सम्मान मरणोपरांत दिया गया। आज इस फिल्म की कहानी या कुछ सीन्स को पाक विरोधी करार देने के बाद पाकिस्तान में फिल्म को इस शुक्रवार रिलीज नहीं किया गया, लेकिन पाकिस्तान सरकार ने नीरजा को तमगा-ए-इन्सानियत अवॉर्ड से सम्मानित किया था।

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कहानी : यह फिल्म नीरजा भनोट (सोनम कपूर) के आस-पास घूमती है। नीरजा के साथ-साथ उसकी इस कहानी में मां रमा भनोट (शबाना आजमी) और पापा (योगेंद्र टिकू) भी हैं जो हर कदम पर अपनी बेटी के साथ हैं। स्टडी के बाद मॉडलिंग और नीरजा की पर्सनल लाइफ को भी इस कहानी का हिस्सा बनाया गया है। नीरजा की कहानी शुरू होती है कराची से। 5 सितंबर 1986 को हाइजैक हुई पैन एम फ्लाइट 73 में हर बार की तरह इस बार भी नीरजा अपनी ड्यूटी पर थीं। फ्लाइट में 359 यात्री सवार थे। जब आंतकियों ने फ्लाइट को हाइजैक किया, नीरजा ने सबसे पहले अपनी फ्लाइट में बैठे अमेरिकी सिटिजन का पासपोर्ट उनसे लिया। उस वक्त तक नीरजा को आंतकियों के खतरनाक इरादों की शायद भनक लग चुकी थी। इतना ही नहीं नीरजा ने अपनी सूझबूझ और बहादुरी के दम पर इस फ्लाइट के क्रू स्टाफ को सबसे पहले बचाया तो उसके बाद मौका मिलते ही फ्लाइट में सवार यात्रियों को प्लेन से बाहर निकालने का काम शुरू किया। अगर नीरजा चाहती तो सबसे पहले खुद फ्लाइट से बाहर निकलकर अपनी जान बचा सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। फ्लाइट के ज्यादातर यात्रियों को बाहर निकालने के बाद नीरजा बच्चों को बाहर निकालते वक्त आतंकियों की गोलियों की शिकार हो गईं।



ऐक्टिंग : सोनम कपूर ने अब तक के अपने फिल्मी करियर में इस बार नीरजा के किरदार को पूरी ईमानदारी के साथ निभाते हुए इस किरदार को जीवंत बना दिया है। शबाना जब भी स्क्रीन पर नजर आईं तभी दर्शकों की आंखों को नम कर गईं। नीरजा की मां रमा भनोट के किरदार को शबाना ने बेहतरीन ढंग से निभाया है।

डायरेक्शन : राम माधवानी ने दर्शकों को शुरू से लेकर आखिरी तक कहानी और किरदारों के साथ बांधे रखा। माधवानी ने कहानी को कुछ लाइट करने के मकसद से फ्लैशबैक का अच्छा इस्तेमाल किया है।



संगीत : फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर अच्छा है। फिल्म के गाने कहानी का हिस्सा लगते हैं।

क्यों देखें : अगर आप अच्छी और बेहतरीन फिल्मों के शौकीन हैं तो इस फिल्म को देखा जा सकता है। सोनम कपूर की बेहतरीन और शबाना की गजब ऐक्टिंग और कसा हुआ निर्देशन इस फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी है।

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इश्क फॉरएवर

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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com

हमारे फिल्म मेकर्स को वैलंटाइंस डे या फिर लव को कैश करना सबसे आसान लगता है। तभी तो पिछले हफ्ते लव को कैश करती दो फिल्में 'सनम रे' और 'फितूर' आई और चली भी गई, लेकिन निर्माताओं का लव फीवर अभी थमने का नाम नहीं ले रहा। इस हफ्ते एक बार फिर ऐसे ही सब्जेक्ट पर बनी एक दो नहीं, बल्कि तीन फिल्में 'लवशुदा', 'इश्क फॉरएवर' और 'डायरेक्ट इश्क' रिलीज हुई। इन फिल्मों में भी भले लीड जोड़ियां स्क्रीन पर रोमांस करते या गाने नजर आ रही हों, लेकिन नयापन कुछ भी नहीं है। कहानी या किरदार दर्शकों की किसी भी क्लास को अप्रोच करने का दम नहीं रखते। 'इश्क फॉरएवर' भी रोमांटिक फिल्म है, लेकिन कहानी और स्क्रीन प्ले इतने कमजोर हैं कि फिल्म शुरू में ही अपने ट्रैक से ऐसे भटकती है कि आखिर तक ट्रैक पर लौट नहीं पाती।

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कहानी : रिया (रूही सिंह) साउथ अफ्रीका में पढ़ाई कर रही है। इसी बीच उसके पापा को देश का पीएम बना दिया जाता है और इससे उसकी पर्सनल लाइफ कुछ इस तरह से प्रभावित होती है कि रिया को लगता है कि जैसे उसे कैद कर लिया गया हो। रिया जहां भी जाती है उसके साथ सिक्यॉरिटी स्टाफ जाता है। रिया को लगने लगता है कि उसकी पर्सनल फ्रीडम खत्म हो रही है। एक दिन रिया की मुलाकात आर्यन शेखावत (कृष्णा चतुर्वेदी) से होती है। आर्यन से मिलने के बाद रिया को ऐसा लगता है, जैसे उसे कोई अपना मिल गया है। रिया अपने सिक्यॉरिटी स्टाफ को झांसा देते हुए आर्यन के साथ भाग जाती है। कहानी में उस वक्त टि्वस्ट आता है, जब रॉ एजेंसी के सिक्यॉरिटी इंचार्ज अमिताभ (जावेद जाफरी) के साथ नैना (लीजा रे) को इन दोनों की तलाश करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है।




ऐक्टिंग : लंबे अर्से बाद स्क्रीन पर नजर आईं लीजा रे ने अपने किरदार को अच्छे ढंग से निभाया है, तो जावेद जाफरी ने भी कहीं निराश नहीं किया। फिल्म के दोनों लीड किरदार रूही सिंह और कृष्णा चतुर्वेदी बेशक अपने किरदार को किसी तरह से निभा भर गए, लेकिन फिल्म नगरी में उन्हें अगर लंबी पारी खेलनी है तो अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।



डायरेक्शन : डायरेक्टर ने न जाने क्यों अपनी तरफ से इस लव स्टोरी को सस्पेंस थ्रिलर फिल्म बनाने की भी कोशिश है, लेकिन ऐसा करने में वह पूरी तरह से चूक गए। स्क्रीन प्ले बेहद कमजोर है। ऐसा लगता है कि फिल्म को इंटरवल के बाद बेवजह खींचा गया। हां, इटरवल से पहले फिल्म ठीक-ठाक है। बासी कहानी को डायरेक्टर समीर सिप्पी अपने निर्देशन के दम पर कहीं भी ताजगी नहीं दे पाए। अलबत्ता उन्होंने जावेद जाफरी और लीज़ा रे से जरूर अच्छा काम लिया है।

संगीत : नदीम-श्रवण की बिछड़ी जोड़ी से नदीम ने इस फिल्म का संगीत दिया है, ऐसे में फिल्म के गाने आपको नब्बे के दशक वाले म्यूजिक की याद दिलाते हैं। करीब दो घंटे की इस फिल्म में कई गाने पहले से सुस्त चल रही रफ्तार को और धीमा करते हैं।

क्यों देखें : अगर आप लीज़ा रे और जावेद जाफरी की ऐक्टिंग पसंद करते हैं तो बस यही एक वजह आपको सिनेमा हॉल तक ले जा सकती है, इसके अलावा इस फिल्म को देखने की कोई वजह नहीं है।

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लवशुदा

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Chandermohan.Sharma@timesgroup.com

लवशुदा को पहले वैलंटाइंस डे के आसपास थिएटर्स पर आना था, लेकिन रिलीज न होने पर मेकर्स ने इसी वीक फिल्म को रिलीज कर दिया। फिल्म की कहानी में कुछ नयापन नहीं है। शादी से पहले बैचलर पार्टी के सब्जेक्ट पर अब तक दर्जनों फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर इन फिल्मों ने कभी अच्छा बिज़नस नहीं किया। इस फिल्म में एकबार फिर ऐसा दिखाया गया है, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट के साथ कमजोर निर्देशन के चलते फिल्म यूथ के साथ कनेक्ट नहीं कर पाई।

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कहानी : गौरव मेहरा (गिरीश कुमार) की शादी होने वाली है। गौरव लंदन में अपनी पूरी फैमिली के साथ रहते हैं। गौरव की फैमिली में उसकी दीदी और जीजा हैं। शादी से पहले गौरव के दोस्त बैचलर पार्टी करना चाहते हैं। इसमें गौरव की मुलाकात पूजा (नवनीत कौर) से होती है। गौरव और पूजा भी इसी मस्ती के माहौल में ड्रिंक करते हैं और बेड तक पहुंच जाते हैं। कुछ ही दिनों में गौरव की शादी है, ऐसे में गौरव और पूजा लंदन से दूर दिल्ली जाने का फैसला करते हैं।




ऐक्टिंग : गिरीश ने अपनी पिछली फिल्म के मुकाबले अच्छी ऐक्टिंग की है। नवनीत कौर और टिस्का चोपड़ा की ऐक्टिंग अच्छी है। वहीं सचिन पिता के किरदार में जमे हैं।

निर्देशन : कहानी और स्क्रीनप्ले खुद डायरेक्टर वैभव मिश्रा ने ही लिखा है। इंटरवल के बाद में ऐसा लगता है जैसे वैभव बैचलर लाइफ की 'लवशुदा' छोटी सी कहानी को बेवजह खींचते जा रहे हैं। गौरव और पूजा का बार-बार मिलना और बिछड़ना अस्सी नब्बे के दशक की फिल्मों की याद दिलाता है।



संगीत : फिल्म का एक गाना पीने की तमन्ना रिलीज से पहले ही हिट है। इस फिल्म के साथ एक म्यूजिक कंपनी का नाम भी जुड़ा है। ऐसे में फिल्म के गानों का फिल्मांकन अच्छा हुआ है।

क्यों देखें : फिल्म की लोकेशन काफी अच्छी हैं। इस फिल्म को देखने के लिए यही एक बड़ी वजह है।

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अलीगढ़

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Chandermohan.sharma@timesgroup.com

​बॉलिवुड में चंद
ऐसे फिल्म मेकर हैं जो बॉक्स ऑफिस की कमाई का मोह छोड़कर अपने मिजाज की ऐसी ऑफ बीट फिल्में बनाने में जरा भी नहीं हिचकिचाते जो उनकी अपनी कसौटी पर खरी उतरती हैं। यकीनन इन फिल्मों की ज्यादा बड़ी मार्केट नहीं होती। सिंगल स्क्रीन थिअटरों और बी-सी क्लास जैसे छोटे सेंटरों पर ऐसी फिल्मों को अक्सर सिनेमा मालिक नहीं लगाते। हंसल मेहता इंडस्ट्री के ऐसे ही चंद गिने चुने मेकर्स में से हैं जो अक्सर अपनी फिल्मों में ऐसा जोखिम उठाते रहे हैं। हंसल की पिछली दो फिल्मों 'शाहिद' और 'सिटी लाइफ' को तारीफें और अवॉर्ड तो बहुत मिले, वहीं बॉक्स ऑफिस पर दोनों ही फिल्मों ने कुछ खास कमाल नहीं किया। अब एक बार फिर हंसल अपने मिजाज की एक और फिल्म 'अलीगढ़' लेकर दर्शकों की उस क्लास के सामने रूबरू हुए हैं। डायरेक्टर हंसल की फिल्म शाहिद ने बॉक्स ऑफिस में कुछ खास कमाल नहीं किया, लेकिन नैशनल अवॉर्ड अपने नाम किया। हंसल की यह फिल्म कुछ साल पहले अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में हुई एक घटना पर आधारित है। हंसल की इस फिल्म को रिलीज से पहले बुसान फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया, जहां हर किसी ने इस फिल्म को जमकर सराहा तो वहीं मुंबई के अलावा लंदन फिल्म फेस्टिवल में भी इस फिल्म को दिखाया गया।

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कहानी: प्रफेसर डॉक्टर एस. आर. सिरस (मनोज बाजपेयी) अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मराठी के प्रफेसर हैं। यूनिवर्सिटी प्रशासन ने डॉक्टर सिरस को करीब 6 साल पहले एक रिक्शा वाले युवक के साथ यौन संबंध बनाने के आरोप में सस्पेंड कर दिया। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी प्रशासन ने एक लोकल टीवी चैनल के दो लोगों द्वारा प्रफेसर सिरस के बेडरूम में किए एक स्टिंग ऑपरेशन के आधार पर उन्हें सस्पेंड करके अगले सात दिनों में स्टाफ क्वॉटर खाली करने का आदेश जारी किया। दिल्ली में एक प्रमुख अंग्रेजी न्यूजपेपर की रिर्पोटिंग हेड नमिता (डिलनाज ईरानी) इस पूरी खबर पर नजर रखे हुए हैं। नमिता अपने न्यूजपेपर के यंग रिपोर्टर दीपू सेबेस्टियन (राजकुमार राव) के साथ एक फोटोग्राफर को इस न्यूज की जांच पड़ताल करने के लिए अलीगढ़ भेजती हैं। अलीगढ़ आने के बाद दीपू कुछ मुश्किलों के बाद अंततः डॉक्टर सिरस तक पहुंचने और उनका विश्वास जीतने में कामयाब होता है। इसी बीच दिल्ली में समलैंगिंग के अधिकारों के लिए काम करने और धारा 377 में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे एक एनजीओ के लोग प्रफेसर सिरस को अप्रोच करते हैं। प्रफेसर सिरस का केस इलाहाबाद हाई कोर्ट में पहुंचता है, जहां सिरस और एनजीओ की ओर से पेश ऐडवोकेट आनंद ग्रोवर (आशीष विधार्थी) इस केस में प्रफेसर सिरस की ओर से बहस करते हैं। हाईकोर्ट प्रफेसर सिरस को बेगुनाह मानकर यूनिवर्सिटी प्रशासन को 64 साल के प्रफेसर सिरस को बहाल करने का आदेश देती है। इसके बाद कहानी में टर्न आता है जो आपको झकझोर देता है। इस फिल्म में बेहद सजींदगी से यह सवाल प्रभावशाली ढंग से उठाया गया है कि क्या होमोसेक्शुअलिटी अपराध है और ऐसा करने वाले का समाज द्वारा तिरस्कृत करना सही है?

ऐक्टिंग: इस फिल्म में मनोज बाजपेयी ने बेहतरीन ऐक्टिंग करके अपने उन आलोचकों को करारा जवाब दिया है जो उनकी पिछली एक-आध फिल्म फलॉप होने के बाद उनके करियर पर सवाल उठा रहे थे। प्रफेसर डॉक्टर सिरस के किरदार की बारीकी को हरेक फ्रेम में आसानी से देखा जा सकता है। यूनिवर्सिटी द्वारा सस्पेंड होने के बाद अपने फ्लैट में अकेला और डरा-डरा रहने वाले प्रफेसर के किरदार में मनोज ने लाजवाब अभिनय किया है। एक साउथ इंडियन जर्नलिस्ट के किरदार को राज कुमार राव ने प्रभावशाली ढंग से निभाया है। ऐडवोकेट ग्रोवर के रोल में आशीष विद्यार्थी ने अपने से रोल में ऐसी छाप छोड़ी है कि दर्शक उनके किरदार की चर्चा करते हैं।

फिल्म 'अलीगढ़' का ट्रेलर देखने के लिए यहां क्लिक करें।

निर्देशन : हंसल ने फिल्म के कई सीन्स को अलीगढ़ की रियल लोकेशन पर बखूबी शूट किया है। वहीं बतौर डायरेक्टर हंसल ने प्रफेसर के अकेलेपन को बेहद संजीदगी से पेश किया है। बेशक इंटरवल से पहले कहानी की रफ्तार सुस्त है, लेकिन ऐसे गंभीर सब्जेक्ट पर बनने वाली फिल्म को एक अलग ट्रैक पर ही शूट किया जाता है, जिसमें हंसल पूरी तरह से कामयाब रहे हैं। हंसल ने फिल्म के लगभग सभी किरदारों से अच्छा काम लिया और कहानी की डिमांड के मुताबिक उन्हें अच्छी फुटेज भी दी है।

संगीत : ऐसी कहानी में म्यूजिक के लिए कोई खास जगह नहीं बन पाती। बैकग्राउंड म्यूजिक प्रभावशाली है तो वहीं कहानी की डिमांड के मुताबिक फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गानों को जगह दी है जो प्रभावशाली है।

क्यों देखें : अगर आप कुछ नया और रियल लाइफ से जुड़ी घटनाओं पर बनी उम्दा फिल्मों के शौकीन हैं तो फिल्म आपके लिए है। वहीं मनोज वाजपेयी के फैन हैं तो अपने चहेते स्टार को एक बार फिर ऐसे लाजवाब किरदार में देखिए जो शायद उन्हीं के लिए रचा गया। वहीं मसाला ऐक्शन फिल्मों के शौकीनों के लिए फिल्म में कुछ नहीं है।

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तेरे बिन लादेन: डेड ऑर अलाइव

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बॉलिवुड में रीमेक और सीक्वल बनाने का ट्रेंड कोई नया नहीं हैं। अगर किसी भी मेकर की पिछली फिल्म बॉक्स ऑफिस पर लागत बटोरने के बाद कमाई करने में कामयाब होती है तो प्रॉडक्शन कंपनी को लगता है कि अब इसका सीक्वल बनाकर कमाई की जाए। दरअसल, मेकर्स को सीक्वल बनाना नई फिल्म की बजाय ज्यादा आसान और कमाई का सौदा लगता है। शायद यही वजह है करीब 6 साल पहले बिना किसी प्रमोशन के लगभग नई स्टार कास्ट के साथ सीमित बजट में बनी तेरे बिन लादेन की प्रॉडक्शन कंपनी अपनी पिछली फिल्म के डायरेक्टर को सीक्वल बनाने के लिए ग्रीन सिग्नल दिया। अब ऐसी कहानी का जो पिछली फिल्म में लगभग पूरी तरह से खत्म सी हो गई हो, उसे आगे खींचना आसान काम नहीं होता लेकिन इस कहानी के साथ इस बार एक प्लस पॉइंट यह नजर आ रहा था कि अमेरिका ने एक सीक्रेट मिलिटरी ऑपरेशन में आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मार दिया था। इसी प्लॉट को लेकर स्टोरी राइटर ने इस सीक्वल पर काम शुरू किया। इसकी शुरुआत तो ठीकठाक रही, लेकिन बाद में स्टोरी ट्रैक से ऐसे उतरी कि फिर ट्रैक पर लौट नहीं पाई।



कहानी : फिल्म की शुरुआत में पिछली फिल्म का जिक्र करके डायरेक्टर ने अपनी इस फिल्म की कहानी को पिछली फिल्म के साथ जोड़ने के लिए एक प्लॉट पेश किया है। शर्मा (मनीष पॉल) के पिता हलवाई हैं, लेकिन शर्मा नहीं चाहता कि वह अपने पिता के काम को आगे बढ़ाए। शर्मा के अपने कुछ अलग सपने हैं। अपने इन्हीं सपनों को साकार करने के लिए शर्मा मुंबई जाता है। मुंबई में उसकी मुलाकात प्रदीप उर्फ ओसामा (प्रद्युम्न सिंह) से होती है। पीद्दी उर्फ ओसामा शर्मा को बताता है कि उसे पिछली फिल्म में लादेन बनाया गया और फिल्म सुपरहिट रही। शर्मा उसकी पिछली फिल्म का सीक्वल बनाने का फैसला करता है, लेकिन इसी बीच लादेन मारा जाता है। दूसरी ओर अमेरिका के प्रेजिडेंट ओबामा पर विपक्ष और दूसरे नेताओं का दबाव है कि आतंकी लादेन को कैसे मारा गया और उसे कहां दफनाया गया इस बारे में सबूत पेश करे। वहीं, अफगानिस्तान में एक आतंकवादी संगठन का सरगना खलीली (पीयूष मिश्रा) किसी भी सूरत में यह साबित करना चाहता है कि लादेन जिंदा है, क्योंकि लादेन के मारे जाने की खबर के बाद खलीली का गैरकानूनी हथियार बेचने का बिज़नस ठप हो रहा है। ऐसे में इनका ध्यान ड्यूप्लिकेट लादेन पर पड़ता है। ड्यूप्लिकेट लादेन को लेकर जहां यूएसए की ओर से आया डेविड (सिकंदर खेर) एक फिल्म शुरू करता है। इस फिल्म का डायरेक्टर शर्मा है और लादेन का किरदार प्रदुम्मन को सौंपा जाता है। डेविड इस फिल्म को किसी सीक्रेट मकसद को पूरा करने के लिए बना रहा है।

डायरेक्शन : ऐसा लगता है फिल्म शुरू करने के बाद कहानी को कैसे आगे बढ़ाया जाए इसी को लेकर अभिषेक शर्मा असंमजस में ऐसे फंसे कि कहानी लगातार कमजोर पड़ती गई। ऐसा लगता है अभिषेक यह समझ ही नहीं पाए कि क्लाइमेक्स में क्या किया जाए। हां, इंटरवल से पहले अभिषेक ने कई सीन में अच्छी मेहनत की है।

संगीत : फिल्म का कोई ऐसा गाना नहीं जो हॉल से बाहर आने के बाद आपकी जुबां पर आ सके।

क्यों देखें : इंटरवल से पहले आपको इस सीक्वल में जहां कॉमिडी का जोरदार पंच मिलेगा तो वहीं इंटरवल के बाद आप अपसेट हो सकते हैं।

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बॉलिवुड डायरीज़

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हर दो तीन साल बाद बॉलिवुड से ऐसी एक फिल्म जरूर आती है जिसमें स्टार बनने की चाह में मुंबई जाने वाले स्ट्रगलर की दास्तां को अलग-अलग नजरिए से पेश किया गया। वैसे भी यह ऐसा टॉपिक है जिसपर मेकर हर बार नए स्टाइल और डिफरेंट किरदारों के साथ नई फिल्म बना सकते हैं, लेकिन अगर हम इस फिल्म की बात करें तो यकीनन प्रॉडक्शन कंपनी की तारीफ करनी होगी कि मेकर ने इस टॉपिक पर पूरी ईमानदारी के साथ एक ऐसी फिल्म बनाई जो कहीं न कहीं हॉल में बैठे दर्शकों को मुंबई में अलग-अलग जगह से आने वाले स्ट्रगलर की दास्तां पेश करती है। बेशक इस फिल्म के तीनों किरदारों में से कोई भी अपना सपना साकार करने के लिए मुंबई तक नहीं पहुंच पाता, लेकिन इन तीनों का अपने शहर में स्टार बनने की अपनी चाह और स्ट्रगल को ऐसे पावरफुल ढंग से पेश किया कि कम बजट और बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों की भीड़ न बटोरने वाले स्टार्स के बावजूद फिल्म अपना मेसेज दर्शकों तक पहुंचाने में कामयाब रही है। अगर देखा जाए तो हर दिन ग्लैमर नगरी में अपने सपनों को साकार करने की चाह में छोटे गांवों और दूर-दराज के कस्बों से स्ट्रगलर मुंबई तक पहुंचते तो जरूर है लेकिन इनमें से ऐसे कम ही मुकद्दर के सिकंदर होते हैं जो अपने सपनों को यहां साकार कर पाते हैं।




कहानी : कोलकाता के रेड लाइट एरिया की सेक्स वर्कर इमली (रायमा सेन) का बचपन से बस एक ही सपना है कि एक दिन उसे सिनेमा के बड़े पर्दे तक पहुंचना है। अपने इस सपने को साकार करने के लिए इमली कुछ भी करने को हरदम तैयार है। वहीं भिलाई के सरकारी डिर्पाटमेंट का बाबू विष्णु श्रीवास्तव (आशीष विद्यार्थी) को स्कूल और कॉलेज के वक्त से ऐक्टिंग का ऐसा जुनून सवार हुआ कि ऐक्टिंग उनके खून में जैसे समा गई। स्टेज पर कई नाटक करने के बावजूद विष्णु अपने ऐक्टर बनने के सपने को इसलिए साकार नहीं पाया क्योंकि फैमिली का सहयोग नहीं मिला और उसे भी शादी करके नाइन टू सिक्स का जॉब करना पड़ा। शादी के बाद विष्णु की पत्नी लता श्रीवास्तव ने उससे वादा किया कि अपनी बेटी की शादी करने के बाद वह ऐक्टर बनने के अपने अधूरे सपने को साकार करने के लिए मुंबई जा सकते हैं। बेटी की शादी के वक्त विष्णु की उम्र करीब 52 साल हो गई, लेकिन ऐक्टर बनने का भूत जरा भी कम नहीं हुआ। दिल्ली की मिडिल क्लास फैमिली का रोहित गुप्ता (सलीम दीवान) एक कॉल सेंटर में जॉब करता है, लेकिन ऐक्टर बनने का भूत उस पर सवार है कि अपने ऑफिस में भी अपने इस अधूरे सपने को पूरा में लगा रहता है। मेकर्स के यहां धक्के खाने के बावजूद उसका ऐक्टर बनने का जुनून कम नहीं हो रहा, बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इन तीनों को अपने अधूरे सपने को साकार करना है, लेकिन इन सबकी राह अलग है, लेकिन मंजिल एक ही है, जो उन तीनों से अभी भी कोसों दूर है।

ऐक्टिंग : आशीष विद्यार्थी ने कमाल का अभिनय किया है। विष्णु के किरदार को आशीष ने जीवंत कर दिखाया है। इमली के रोल में रायमा सेन ने अपने जानदार अभिनय से दर्शकों के दिल को छू लिया। एक स्ट्रगलर ऐक्टर के किरदार में सलीम दीवान ने अच्छा काम किया है। विष्णु की पत्नी के किरदार में करुणा पाण्डेय ने हर सीन में अच्छा अभिनय करके दर्शकों की सहानुभूति पाई।

संगीत : इस फिल्म का का एक गाना मन का मिरगा माहौल पर फिट नजर आता है। फिल्म का बैकग्राउंड संगीत भी पावरफुल है।

डायरेक्शन : डायरेक्टर सत्यम की इंटरवल से पहले हर सीन पर पूरी पकड़ नजर आती है, लेकिन इंटरवल के बाद कहानी की रफ्तार थम सी जाती है। काश सत्यम अपनी कहानी के किसी एक किरदार को स्ट्रगल के लिए मुंबई तक पहुंचाते तो कहानी में और जान आती। हां, सत्यम ने अपनी कहानी के तीनों किरदारों से अच्छा काम लिया तो स्पोर्टिंग स्टार कास्ट को भी अच्छी फुटेज दी।

क्यों देखें : स्टार बनने का जुनून किस को कहां तक और किस हाल में पहुंचा देता है, इस फिल्म में आप रील से रियल में देख सकते हैं। आशीष और राइमा सेन का दिल को छू लेने वाला अभिनय, करुणा पांडे की ऐक्टिंग फिल्म की एक और यूएसपी कही जा सकती है।

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ज़ुबान

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Chandermohan.sharma@timesgroup.com

बॉलिवुड में अब अलग तरह की फिल्में बनने लगी है, अलग-अलग दमदार सब्जेक्ट पर ऐसी फिल्में बनने लगी हैं जिन्हें कुछ वक्त पहले बनाने की मेकर सोच तक नहीं सकते थे। इस फिल्म के हीरो विकी कौशल की बात करें तो उनकी पहली फिल्म मसान की कहानी श्मशान घाट के आसपास घूमती है तो यह फिल्म पंजाब और संगीत से जुड़ी है।

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पंजाब और म्यूज़िक का खास रिश्ता है, यहां की वादियों में संगीत बसा है, फिल्म मेकर की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने ऐसे सब्जेक्ट पर ऐसी फिल्म बनाई जो उन दर्शकों की कसौटी पर यकीनन खरी उतरने का दम रखती है जो लीक से हटकर ऐसी फिल्में देखने के शौकीन हैं, जो इंडस्ट्री के टॉप मंहगे स्टार्स के साथ बनी चालू मसालों पर बनी फिल्मों की भीड़ से दूर ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जो दमदार कहानी के दम पर उनके दिल को छूने का दम रखती है।




प्रॉडक्शन कंपनी ने स्टोरी की डिमांड पर इस फिल्म को मुंबई के किसी स्टूडियो में सेट लगाकर शूट करने की बजाए पंजाब की रियल लोकेशन पर शूट किया। बॉक्स आफिस पर रिजल्ट की परवाह किए बिना फिल्म को उन्हीं कलाकारों के साथ बनाया जो किरदार की कसौटी पर सौ फीसदी फिट बैठते हैं। आज जब मीडिया में पंजाब की युवा पीढ़ी के नशे की और धीरे-धीरे अग्रसर होने की खबरें आ रही हैं तो ऐसे में वहां संगीत अपना सबसे महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है, इसी मेसेज को जुबान में एक अलग अंदाज में पेश करने की पहल की गई है।

कहानी : दिलशेर सिंह (विकी कौशल) अपने पिता के साथ गुरदासपुर के एक गुरुद्वारे में जाकर गुरुबाणी और सबद गाता है। दिलशेर के पिता की सुनने की शक्ति अब धीरे धीरे कम होने लगी है, एक दिन ऐसा आता है जब उन्हें सुनाई देना बंद हो जाता है। संगीत से उनका रिश्ता खत्म हो जाता है, दिलशेर के पिता इस सदमे से हताश होकर अपनी जान दे देते हैं। दिलशेर का भी यहीं से संगीत के साथ रिश्ता खत्म हो जाता है। स्कूली दिनों में दिलशेर को जब स्कूल के कुछ स्टूडेंट्स पीट रहे थे तो उस वक्त वहां मौजूद गुरुचरण सिकंद (मनीष चौधरी) उसकी मदद नहीं करता। दिलशेर जब पास पड़ा बड़ा सा पत्थर उठाकर उनका सामना करता है तो सभी भाग खड़े होते हैं। दिलशेर उस वक्त सिकंद से पूछता है कि उन्होंने उसकी मदद क्यों नहीं की? उस वक्त गुरुचरण उसे कहता है जो कुछ भी करना है खुद ही करना है, किसी के सहारे की आस रखोगे तो कुछ भी नहीं कर पाओगे, सो हमेशा खुद पर भरोसा करो। पिता की मौत के बाद दिलशेर अपने गांव से दिल्ली जाता है, जहां सिकंद की कई कंपनियों का मालिक बन चुका है। दिल्ली में दिलशेर का मकसद गुरदासपुर के लॉयन यानी सिकंद से मिलना है, क्योंकि दिलशेर भी सिकंद जैसा बनना चाहता है। एक दिन दिलशेर सिकंद तक पहुंचने में कामयाब होता है। दिलशेर जब सिकंद के पास पहुंचता है तो पाता है सिकंद अपनी वाइफ मंदिरा मेंडी (मेघना मलिक) और इकलौते बेटे सूर्या (राघव चानना) से बेइंतहा नफरत करता है। हर बात पर सिकंद बेटे सिकंद को नीचा दिखाना चाहता है, दिलशेर के आने के बाद सिकंद को लगता है मंदिरा और सूर्या दिलशेर से बेहद नफरत करते हैं, ऐसे में वह जानबूझकर दोनों को और जलाने के लिए दिलशेर को तवज्जो देना शुरू कर देता है। इसी बीच दिलशेर की मुलाकात सूर्या की गर्लफ्रेंड अमीरा (सारा जेन डयास) से होती है। हर वक्त म्यूजिक और अपनी बसाई एक अलग दुनिया में रहने वाली अमीरा दिलशेर को एहसास कराती है कि जब वह गाता है तो हकलाता नहीं है। बस यहीं से दिलशेर को लगता है कि उसकी मंजिल कुछ और ही है।

ऐक्टिंग : पूरी फिल्म मनीष चौधरी और विकी कौशल के आसपास टिकी है। मसान के बाद एक बार फिर विकी कौशल ने इस फिल्म में अपने किरदार दिलशेर को स्क्रीन पर जीवंत कर दिखाया है। कई सीन में विकी ने गजब का अभिनया किया है। लॉयन ऑफ गुरदासपुर, गुरुचरण सिकंद के रोल में मनीष चौधरी ने बेहतरीन ऐक्टिंग की है। सारा जेन डयास के हिस्से में कुछ सीन और गाने ही आए है, जन्हें डयास ने बस निभा भर दिया। सिकंद की पत्नी के रोल में मेघना मलिक और इकलौते बेटे के रोल राघव चानना परफेक्ट रहे।

संगीत : म्यूजिक फिल्म का प्लस है, बाबा बुल्ले शाह की बाणी का अच्छा प्रयोग किया गया है। फिल्म का एक गाना म्यूजिक इज माई लव, म्यूजिक इज माई होम जुगनू सा जले पहले से म्यूजिक लवर्स की जुबां पर है।

निर्देशन : निर्देशक मोजेज सिंह ने स्क्रिप्ट के साथ पूरा न्याय किया है। ग्लैमर इंडस्ट्री में बतौर डायरेक्टर अपनी पहचान बनाने में लगे मोजेज सिंह की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने कहानी और किरदारों के साथ पूरा इंसाफ किया। अच्छी शुरुआत के बाद अचानक फिल्म की रफ्तार कुछ सुस्त हो जाती है, वहीं सिकंद के घर दिलशेर की एंट्री और उसके मकसद को निर्देशक सही ढंग से पेश नहीं कर पाए। वहीं उन्होंने फिल्म के सभी कलाकारों से अच्छा काम लिया।

क्यों देखें : अगर लीक से हटकर फिल्मों के शौकीन हैं तो जुबान एकबार देखी जा सकती है, विकी और मनीष चौधरी की गजब दमदार परफार्मेंस और मधुर संगीत फिल्म का प्लस पॉइंट है।

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जय गंगाजल

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Chandermohan.sharma@timesgroup.com

प्रकाश झा के नाम के साथ मृत्युदंड, राजनीति, गंगाजल, अपहरण सहित कई बेहतरीन फिल्में जुड़ी हैं। झा अक्सर अपनी हर नई फिल्म में कोई सोशल मेसेज देने की कोशिश करते है। करीब तेरह साल पहले आई झा की अजय देवगन स्टारर 'गंगाजल' ने बॉक्स आफिस पर जबर्दस्त कामयाबी हासिल की थी। अब जब बॉक्स आफिस पर सीक्वल और रीमेक का ट्रेंड चल निकला है, तो झा ने अपनी इस सुपर हिट फिल्म का सीक्वल बनाकर पेश किया।

कमजोर स्क्रिप्ट और सतही कहानी के साथ पुराने मसालों को पेश करके झा ने नई फिल्म तो बना डाली, लेकिन मल्टिप्लेक्स कल्चर और बॉक्स आफिस पर वर्चस्व करने वाली यंग जेनरेशन की कसौटी पर ऐसे मसालों पर बनी फिल्में बॉक्स आफिस पर कमजोर मानी जाती हैं। वैसे अगर झा की पिछली तीन फिल्मों चक्रव्यूह, आरक्षण और सत्याग्रह की बात करें तो जबर्दस्त प्रमोशन और बॉक्स आफिस पर बिकाऊ स्टार कास्ट के बावजूद उनकी यह फिल्में अपनी प्रॉडक्शन कास्ट तक बटोर नहीं पाईं।

अफसोस, करीब डेढ़ दशक के बाद झा ने जब गंगाजल का सीक्वल बनाया तो कहानी में से नयापन गायब है। मेरीकॉम में अपने अभिनय की हर किसी की प्रशंसा बटोर चुकी प्रियंका चोपड़ा को झा अपनी इस फिल्म में लेडी सिघंम और दबंग की तर्ज पर पेश किया है।

कहानी: बांकेपुर के दंबग विधायक बबलू पांडे (मानव कौल) का अपने इलाके में जबर्दस्त दबदबा है। बबलू पांडे को हर गैरकानूनी काम को करने के लिए स्टेट के मिनिस्टर ( किरण करमाकर ) का फुल सपॉर्ट है। विधायक पांडे का भाई डब्लू पांडे (निनाद कुमार ) एक बिजली कंपनी को अपने इलाके में 1600 मेगावॉट बिजली प्रॉजेक्ट लगाने के लिए जमीन उपलब्ध कराने की डील करता है। इलाके में डब्लू पांडे का ऐसा खौफ है कि कोई उसके सामने जुबां खोलने की जुर्रत नहीं कर सकता। ऐसे में डब्लू पांडे इलाके के अधिकांश गरीबों-किसानों की जमीन की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लेता है, लेकिन जमीन के एक छोटे से टुकड़े के न मिल पाने की वजह से पावर कंपनी के साथ डब्लू पांडे की डील फाइनल नहीं हो पा रही है और इस डील में पांडे का करोड़ों रूपया अटका पड़ा है। ऐसे माहौल में, बांकेपुर में दबंग एसपी आभा माथुर (प्रियंका चोपडा) की एंट्री होती है।

जमीन छीनने और पहले से कर्ज में दबे किसानों का दर्द और डब्लू पांडे के चौतरफा आंतक के साथ साथ पुलिस अफसरों को अपनी मुठ्ठी में रखने के किस्से आभा माथुर तक पहुंचते हैं। वहीं एक के बाद यहां हो रही गरीब किसानों की आत्महत्याओं के पीछे जब आभा माथुर को अपने ही डिपार्टमेंट के सर्कल बाबू भोलानाथ सिंह (प्रकाश झा) और कुछ दूसरे अफसरों के शामिल होने के साथ साथ बबलू पांडे डब्लू पांडे को पूरी तरह से सपॉर्ट करने की जानकारी मिलती है, तब एसपी आभा माथुर अपने डिपार्टमेंट के टॉप अफसरों के अहयोग और राजनीतिक अड़चनों और विरोध के बावजूद बबलू पांडे और उसके भाई से गांव वालों को हमेशा के लिए छुटकारा दिलाने का फैसला करती है।

ऐक्टिंग: मेरीकॉम के बाद एकबार प्रियंका चोपड़ा ने इस किरदार को निभाने के लिए जबर्दस्त मेहनत की है। प्रियंका पर फिल्माएं कई ऐक्शन सीन्स खूब बन पड़े हैं। एसपी के चेहरे पर गुस्सा दिखाने की कोशिश करती हैं। बेशक आभा माथुर का किरदार प्रियंका को लेडी सिंघम और दबंग की कैटिगिरी में लाता है, लेकिन अगर हम उनकी ऐक्टिंग की तुलना यश राज बैनर की फिल्म मर्दानी में रानी मुखर्जी के किरदार से करते हैं यहां यकीनन प्रियंका रानी के पीछे नजर आती हैं। समझ नहीं आता प्रियंका के किरदार के बाद कहानी के सबसे अहम किरदार सर्कल आफिसर भोला नाथ सिंह का रोल झा ने खुद करने का फैसला क्यों किया? चलिए मानते है झा ऐक्टिंग के अपने शौक को पूरा करना चाहते थे तो कहानी के किसी हल्के किरदार को ही अपने पास रखते। ऐसे में फिल्म में बार-बार मैडम, सर बोलकर दर्शकों के सब्र की परीक्षा लेने वाले झा साहब को सुझाव है फिलहाल तो ऐक्टिंग से दूर ही रहें। बबलू पांडे के किरदार मानव कौल ने अच्छा अभिनया किया है, मानव ने बबलू पांडे के नेगेटिव किरदार को कहानी के मुताबिक ऐसा बनाया कि हॉल में बैठे दर्शक इस किरदार से नफरत करने लगते हैं। मुरली शर्मा की ऐक्टिंग बरसों पहले सड़क में सदाशिवराव अमरापुरकर की याद दिलाती है। डब्लू पांडे के रोल में में निनाद कामत ने ओवर ऐक्टिंग की हैं।

निर्देशन: आज मल्टिप्लेक्स कल्चर के दौर में ऐसी कहानी आउटडेटेड मानी जाती है। कई सीन्स को जबर्दस्ती खींचा गया है। बार-बार स्क्रीन पर खुद झा का आना भी अखरता है ऐसे में बतौर डायरेक्टर अपनी इस फिल्म में तेरह साल पहले वाला जादू नहीं बिखेर पाए, कहानी की धीमी रफ्तार कई बार आपके सब्र का इम्तिहान लेती है तो कई किरदार ऐसे रखे गए हैं जिन्हें कहानी से आसानी से दूर किया जा सकता था। बेशक झा ने एकबार फिर अपनी इस फिल्म में एकबार फिर सोशल मेसेज देने की कोशिश की है। वैसे झा अगर चाहते तो गरीब किसानों की खेती योग्य जमीनों के अधिग्रहण के पीछे राजनेताओं, प्रशासन और पुलिस की मिलीभगत पर एक अच्छी फिल्म बना सकते थे, लेकिन यहां उनकी कहानी डब्लू और बबलू के आगे-पीछे ही घूमती रही। ऐसे में कहानी को ढाई घंटे तक बेवजह खींचना समझ से परे है।

संगीत: ऐसी कहानी में गानों को फिट करना मुश्किल होता है। ऐसे में झा ने गानों का बैकग्राउंड में फिल्माया है, लेकिन ऐसा कोई गाना नहीं जो म्यूजिक लवर्स की जुंबा पर आए।

क्यों देखें: इस फिल्म को देखने की बस दो ही वजह हो सकती है- पहली कि आप प्रकाश झा की फिल्मों को मिस नहीं करना चाहते। दूसरी यह कि आप प्रियंका चोपड़ा के पक्के फैन हैं और अपनी चहेती ऐक्ट्रेस की फिल्में जरूर देखते हैं तो जय गंगाजल आपके लिए पैसा वसूल है।

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तेरा सुरूर

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हिमेश ने पहली बार इंडस्ट्री के दिग्गजों शेखर कपूर, कबीर बेदी और नसीरुद्दीन शाह के साथ कैमरा फेस किया है। यह जरूर है कि ऐक्टिंग की फील्ड में हिमेश को अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अभी लम्बा सफर तय करना होगा। इस फिल्म में हिमेश ने...हिमेश ने पहली बार इंडस्ट्री के दिग्गजों शेखर कपूर, कबीर बेदी और नसीरुद्दीन शाह के साथ कैमरा फेस किया है। यह जरूर है कि ऐक्टिंग की फील्ड में हिमेश को अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अभी लम्बा सफर तय करना होगा। इस फिल्म में हिमेश ने...

ग्लोबल बाबा

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इस सप्ताह रिलीज हुई ग्लोबल बाबा एक ऐसी ही फिल्म है जिसे मेकर ने पूरी ईमानदारी के साथ स्टार्ट टू लास्ट एक ही ट्रैक पर बनाया है, लेकिन...इस सप्ताह रिलीज हुई ग्लोबल बाबा एक ऐसी ही फिल्म है जिसे मेकर ने पूरी ईमानदारी के साथ स्टार्ट टू लास्ट एक ही ट्रैक पर बनाया है, लेकिन...

रिव्यू: देखें कैसी है फिल्म तान्हाजी

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आशुतोष गोवारिकर की हिस्टॉरिकल फिल्म पानीपत के बाद निर्देशक ओम राउत तानाजी द अनसंग वारियर के साथ प्रस्तुत हुए हैं। पानीपत के बाद तानाजी एक और ऐसी ऐतिहासिक फिल्म है, जो मराठा साम्राज्य की शूरवीरता को भव्य अंदाज में दर्शाने में कामयाब रही है। ऐतिहासिक फिल्में और वो भी खास तौर पर युद्ध के विषय पर बनी फिल्में कई बार बोझिल, भारी और उबाऊ हो जाती हैं, मगर इसे निर्देशक की खूबी कहना होगी कि इतिहास के महत्वपूर्ण अध्याय से ली गई इस कहानी में जांबाजी, रोमांस, थ्रिल, विश्वासघात जैसे सारे एलिमेंट्स हैं और उस पर सोने पर सुहागा कहलाने वाला 3 डी इफेक्ट्स जो पूरी फिल्म को शुरू से अंत तक देखने लायक बनाता है।

कहानी इतिहास के उस पन्ने की है, जहां औरंगजेब (ल्यूक केनी) पूरे हिंदुस्तान पर मुगलिया परचम को लहराने की रणनीति बना रहा है और दक्खन (दक्षिण) शिवाजी महाराज(शरद केलकर) अपने स्वराज्य को लेकर ली गई कसम के प्रति कटिबद्ध है। इतिहास में यह युद्ध (4 फरवरी 1670) को सिंहगढ़ का युद्ध के नाम से दर्ज है। 17वीं शताब्दी में शिवाजी महाराज का परममित्र और जांबाज योद्धा सूबेदार तानाजी मालसुरे (अजय देवगन) अपनी पत्नी सावित्रीबाई (काजोल) के साथ अपने बेटे की शादी की तयारियों में व्यस्त हैं। वे इस बात से अंजान है कि पुरंदर संधि में कोंडाणा किले समेत 23 किलों को मुगलों के हवाले कर देने के बावजूद मुगलिया सल्तनत की प्यास नहीं मिटी है। जिस वक्त राजमाता जीजाबाई ने कोंडाणा का किला मुगलों के हवाले किया था, उसी वक्त उन्होंने शपथ ली थी कि जब तक इस किले पर दोबारा भगवा नहीं लहराएगा, तब तक वे पादुका नहीं पहनेंगी। औरंगजेब अपने खास, विश्वासपात्र और बर्बर प्यादे उदयभानु राठोड(सैफ अली) को भारी-भरकम सेना और नागिन नामक एक बड़ी तोप के साथ कोंडाणा किले की और कूच करने का आदेश देकर मराठा साम्राज्य का खात्मा करने का मन बना चुका है।

शिवाजी महाराज अपने बहादुर और प्यारे दोस्त को इस वक्त युद्ध की त्रासदी में शामिल नहीं करना चाहते, वो इसलिए कि वह नहीं चाहते कि तानाजी के शादी वाले घर में युद्ध का ग्रहण लगे। मगर जब तानाजी को पता चलता है कि स्वराज्य और शिवाजी महाराज खतरे में है, तो वह बेटे की शादी की परवाह किए बगैर भगवा पहनकर उदयभानु का सर कलम करने को निकल पड़ता है। उदयभानु जांबाजी में तानाजी से कहीं कमतर नहीं है और उसमें बर्बरता भी भरी हुई है। इसी प्रवृत्ति के तहत वह विधवा राजकुमारी कमलादेवी (नेहा शर्मा) को उठा लाता है और अपनी रानी बनाने पर अड़ जाता है। असल में कमला उसका पहला प्यार थी, मगर उसके द्वारा ठुकराए जाने और लज्जित किए जाने के बाद वह मुगलों से जा मिला। उदयभानु राठोड के साथ हुए युद्ध में तानाजी को शौर्यता के साथ-साथ विश्वासघात भी मिलता है। क्या तानाजी उदयभानु का खात्मा कर पाता है? क्या वह शिवाजी महाराज को दिए गए वचन का पालन कर पाता है? इसे जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

लोकमान्य एक युग पुरुष जैसी ऐतिहासिक फिल्म में बेस्ट डायरेक्टर का फिल्फेयर अवॉर्ड जीत चुके ओम राउत ने फिल्म की कहानी के साथ वीएफएक्स पर भी खूब मेहनत की है। फिल्म ग्रिपिंग है। 3डी के अंतर्गत युद्ध के दृश्यों को देखना किसी विजुअल ट्रीट से काम नहीं है। जर्मनी के एक्शन डायरेक्टर रमाजान ने मराठा की छापमार युद्ध तकनीक को ध्यान में रखते हुए उस दौर के वॉर सीन्स को डिजाइन किया, जो काफी रोचक और थ्रिलिंग बन पड़े हैं। तलवारबाजी के तरीकेकार भी दर्शनीय बन पड़े हैं। किलों और घाटी को विजुअल इफेक्ट्स से अच्छी तरह सजाया गया है। संगीत की बात करें, तो सचेत परंपरा, अजय-अतुल और मेहुल व्यास जैसे संगीतकारों की मौजूदगी में 'शंकरा रे शंकरा', 'माय भवानी' और 'घमंड कर' जैसे गाने और उनकी कोरियोग्राफी अच्छी बन पड़ी है।

जांबाज योद्धा के रूप में अजय देवगन हर तरह से फिट और फाइनेस्ट रहे हैं। युद्ध के दृश्यों में उनकी चपलता देखते बनती है। स्वराज्य के लिए उनका मर-मिटनेवाला इमोशन भी उनके चरित्र को खास बनाता है। काजोल के साथ उनकी केमेस्ट्री भी दिलचस्प है। उदयभानु राठोड के रूप में सैफ अली लाजवाब रहे हैं। कई जगहों पर वे अजय की तुलना में बीस साबित हुए हैं। तानाजी में खलनायक बेहद मजबूत है। सैफ ने अपने किरदार की बर्बरता को सशक्त तरीके से निभाया है। दूसरों को प्रताड़ित करते हुए आसुरी आंनद की प्राप्ति करनेवाले दृश्यों में उनकी ब्लैक कॉमिडी भी नजर आती है। काजोल ने अपनी भूमिका को ईमनदारी से निभाया है। उन्हें और ज्यादा स्क्रीनस्पेस दिया जाना चाहिए था। शिवाजी के रूप में भले शरद केलकर की कदकाठी मैच न खाती हो, मगर अपने बॉडी लैंग्वेज और भाव-भंगिमा से उन्होंने इस किरदार को संस्मरणीय बनाया है। सहयोगी कास्ट मजबूत और विषय के अनुरूप रही है।

क्यों देखें-ऐतिहासिक फिल्मों और 3 डी के शौकीन यह फिल्म दमदार परफॉर्मेंस के लिए देख सकते हैं।

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बंकर

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वॉर फिल्मों को दर्शाने के लिए फिल्मकारों का पसंदीदा विषय इंडिया-पाकिस्तान की लड़ाई रही है। निर्देशक जुगल राजा भी 'बंकर' के रूप में इंडिया-पाकिस्तान के बीच हुए एक ऐसे ही हमले की दास्तान लेकर पेश हुए हैं, जहां घुसपैठिये सीज फायर का उल्लंघन करके कश्मीर के पुंछ इलाके में बने भारतीय बंकर पर धावा बोलते हैं। निर्देशक ने इसे एंटी वॉर मूवी के रूप में प्रचारित किया है, मगर फिल्म में वह बात नजर नहीं आती। फिल्म की कहानी इस मुद्दे से विपरीत विरोधाभासी लगती है।

कहानी: पुंछ (कश्मीर) पर भारतीय सेना की बटालियन नंबर 42 के बंकर पर रात के अंधेरे में घुसपैठियों द्वारा सीजफायर का उल्लंघन कर जब धावा बोला जाता है, उस वक्त उस बंकर पर लेफ्टिनेंट विक्रम सिंह (अभिजीत सिंह), सूबेदार सुखराम (अरनव तिमसिना) और कैप्टन (देव रोनसा) तैनात थे। दुश्मन इस बंकर पर अपना झंडा फहराना चाहता है। इस हमले में सूबेदार और कैप्टन शहीद हो जाते हैं और लेफ्टिनेंट विक्रम सिंह बुरी तरह से घायल हो जाता है। उसका एक पैर चोटिल है, जिसमें भयानक बारूदी शेल फंसा हुआ है। अगर वो जरा भी हिलता है, तो शेल फटकर पूरे बंकर को उड़ा सकता है। चोट और सूजन के कारण उसे दिखाई देना बंद हो जाता है। मदद आने में देर है, सो विक्रम अपनी जांबाजी का परिचय देते हुए दुश्मन का कड़ा मुकाबला करता है। इस मुकाबले में उसे अपनी पत्नी स्वरा (अरिंधिता कलीता ) और अपनी नन्हीं बच्ची गुड़िया की यादें और उनके बंकर में होने का आभास होता है।

फिल्म को बनाने की जुगल राजा की नियत पर शक नहीं किया जा सकता, मगर फिल्म में एंटी वॉर के जिस पहलू को दर्शाने की उन्होंने कोशिश की है, वे उसको एग्जिक्यूट नहीं कर पाए। देश के लिए अपने प्राणों की बलि देनेवाला जवान अपने कर्तव्य की डोर में बंधा हुआ होता है, मगर उसका अपना परिवार और रिश्ते भी होते हैं, जो उसे उसके पारिवारिक दायित्वों की याद दिलाते रहते हैं। घायल होने के बाद मौत के करीब बढ़नेवाले जवान की मानसिक स्थिति को तो निर्देशक ने कुछ हद तक दर्शाया है, मगर युद्ध की निरर्थकता को वे कहीं भी जोड़ नहीं पाए। फर्स्ट हाफ में फिल्म बहुत उबाऊ लगती है और सेकंड हाफ भी बंकर और एक -दो किरदारों में सिमटा नजर आता है। स्क्रीनप्ले कमजोर है और कहानी का विस्तार न होने के कारण फिल्म की लंबाई खलती है, मगर कौशाई महावीर के संगीत में रेखा भारद्वाज का गाया हुआ गीत, 'लौट के घर जाना है' रौंगटे खड़े कर देने के साथ-साथ दिल को बेंध जाता है। इसकी कोरियोग्राफी भी असरकारक है।

अभिनय के मामले में भी फिल्म कमजोर है। विक्रम सिंह के रूप में अभिजीत सिंह ने अपनी भूमिका में काफी कोशिश की है, मगर उनका किरदार अधपका है। स्वरा के रूप में अरिंधिता कलीताको ज्यादा स्क्रीन स्पेस नहीं मिला। अन्य किरदार भी प्रभाव छोड़ने में नाकाम रहे हैं।

क्यों देखें-इस फिल्म को नहीं भी देखेंगे, तो कोई हर्ज नहीं।

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जय मम्मी दी

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किसी ने सच ही कहा है कि कॉमिडी इज वैरी सीरियस बिजनस। वाकई कॉमिडी हर किसी के बस की बात नहीं। आपने अगर कहानी की डोर में किरदारों को कॉमिक अंदाज में नहीं ढाला, तो समझो आप हंसाने में नाकाम। यही निर्देशक नवजोत गुलाटी की 'जय मम्मी दी' में हुआ है। फिल्म भले कॉमिडी जॉर्नर की हो, मगर फिल्म में आपको हंसी के पल कम और सुपरफिशियल और फोर्स हास्य की झलकियां ज्यादा नजर आती हैं।

कहानी: फिल्म बहुत ही कॉमिक अंदाज में शुरू होती है, जहां दिल्ली में बसे दो परिवार अगल-बगल में रहते हैं, मगर उनके बीच कड़ी दुश्मनी है। कॉलेज के जमाने में पिंकी (पूनम ढिल्लन) और लाली (सुप्रिया पाठक) के बीच भले दांत-काटी दोस्ती रही हो, मगर अब दोनों एक-दूसरे को देखकर कटखनी बिल्ली की तरह काटने को झपटती हैं। इन दोनों की दुश्मनी का निर्वाह इनका परिवार भी करता है। पिंकी और लाली इस बात से अंजान हैं कि उनके बच्चे पुनीत खन्ना (सनी सिंह) और सांझ भल्ला (सोनाली सहगल) एक लंबे अरसे से एक-दूसरे से प्यार करते हैं। कहानी में ट्विस्ट तब आता है, जब सांझ द्वारा पुनीत को शादी के लिए प्रपोज किये जाने के बावजूद वह डर कर हां नहीं कर पाता। दुखी सांझ की शादी कहीं और तय हो जाती है और उसकी राइवलरी में लाली अपने बेटे पुनीत का रिश्ता कहीं और तय कर देती है। इसी बीच पुनीत और सांझ को अहसास होता है कि वे एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। बस फिर क्या? वे अपनी-अपनी होनेवाली शादियों को को तोड़ने की कोशिशों में लग जाते हैं।

रिव्यू: निर्देशक नवजोत के निर्देशन की समस्या यह है कि उन्होंने बहुत ही थिन लाइन वाली स्टोरी चुनी है, जिसे वे विस्तार नहीं दे पाए। इसी कारण इंटरवल तक कुछ होता ही नहीं है। कहानी बहुत ही मंथर गति से आगे बढ़ती है। फिल्म में कुछ हंसाने वाले वन लाइनर्स हैं, मगर वे ज्यादा होल्ड नहीं कर पाते। इंटरवल के बाद कहानी थोड़ी आगे बढ़ती है, मगर तर्कहीन और बचकाने दृश्य फिल्म को किसी नतीजे पर नहीं ले जा पाते। पिंकी और लाली की दुश्मनी का कारण जब क्लाईमैक्स में खुलता है, तो दर्शक के रूप में ठगे जाने का अहसास होता है।
फिल्म में गानों की भरमार कहानी को कॉम्प्लिमेंट करने के बजाय रुकावट पैदा करती है।
सनी सिंह ने पुनीत खन्ना के रूप में पूरी कोशिश की है कि वे अपने किरदार में असर पैदा करें। सांझ के रूप में सोनाली ग्लैमरस जरूर लगी हैं, मगर अपनी भूमिका के सही सुर को नहीं पकड़ पाई हैं। सनी और सोनाली इससे पहले 'प्यार का पंचनामा 2' में नजर आए थे, मगर यहां दोनों के बीच केमेस्ट्री नदारद है। पूनम ढिल्लन और सुप्रिया पाठक को फिल्म में मोगम्बो और गब्बर का खिताब दिया गया है, मगर वैसी कोई बात उनके किरदारों में नजर नहीं आती। असल में उनके किरदारों को सही तरीके से गढ़ा नहीं गया है। इन दोनों अभिनेत्रियों का अनुभव इनकी अभिनय अदायगी में झलकता तो है, मगर लाउड और मेलोड्रामा होने के कारण वह प्रभावी नहीं रहता।

क्यों देखें: आप इस फिल्म को नहीं देखेंगे, तो आपका कोई नुकसान नहीं होगा।

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पंगा

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'मैं एक मां हूं और मां के कोई सपने नहीं होते।' अश्विनी अय्यर तिवारी निर्देशित 'पंगा' के इस डायलॉग से हर वो औरत खुद को जुड़ा हुआ पाएगी, जिसने अपने घर-परिवार और बच्चों के लिए अपने सपनों को भुलाकर अपनी पहचान तक खो दी हो। फिर फिल्म में एक संवाद और आता है, जहां नायिका अपने पति से कहती है, 'तुमको देखती हूं तो बहुत खुशी होती है, इसे (बेटे) को देखती हूं, तो खुशी होती है, मगर खुद को देखती हूं, तो खुश नहीं हो पाती' और उसके बाद शुरू होती है नायिका की अपने अस्तित्व की जंग और उसमें खुद को श्रेष्ठ साबित कर पाने की जद्दो-जहद।

जया निगम (कंगना रनौत) एक समय कबड्डी की नैशनल प्लेयर और कैप्टन रही है, मगर अब वह 7 साल के बेटे आदित्य उर्फ आदि (यज्ञ भसीन) के बेटे की मां और प्रशांत (जस्सी गिल) की पत्नी है। जया अपनी छोटी-सी दुनिया में खुश है। कबड्डी ने उसे रेलवे की नौकरी दी है और उसकी जिंदगी घर,बच्चे और नौकरी की जिम्मेदारियों के बीच गुजर रही है। फिर एक दिन घर में एक ऐसी घटना घटती है कि जया का बेटा आदि उसे 32 साल की उम्र में कबड्डी में कमबैक करने के लिए प्रेरित करता है। पहले जया पति प्रशांत के साथ मिलकर कमबैक की प्रैक्टिस का झूठा नाटक करती है, मगर इस प्रक्रिया में उसके दबे हुए सपने फिर सिर उठाने लगते हैं। अब वह वाकई इंडिया की नैशनल टीम में कमबैक करके अपने स्वर्णिम दौर को दोबारा जीना चाहती है। उसके इस सफर में उसका पति और बेटा तो साथ है ही, उसकी मां (नीना गुप्ता), बेस्ट फ्रेंड मीनू (रिचा चड्ढा) जो कबड्डी कोच और प्लेयर भी है, उसे हर तरह का सपॉर्ट देती है।


निर्देशक के रूप में अश्विनी अय्यर तिवारी की खूबी यह है कि उन्होंने भोपाल जैसे छोटे शहर की कामकाजी औरत और उसके मध्यम वर्गीय परिवार को परदे पर जिन बारीकियों के साथ चित्रित किया है, उससे कहानी को बल मिलता है। अश्विनी जया, मीनू और मां नीना गुप्ता के चरित्रों के जरिए महिला सशक्तिकरण की बात करती हैं, मगर कहीं भी इन किरदारों को प्रीची नहीं होने देती। इनफैक्ट एक दृश्य में जया कहती है, 'हर बार औरत से ये क्यों पूछा जाता है कि उसे करियर छोड़ने के लिए पति या घर ने मजबूर किया। यह उसकी अपनी चॉइस भी तो हो सकती है।' असल में अश्विनी 'पंगा' के जरिए कहना चाहती हैं कि औरत को अपनी चॉइस से पंगा लेने का अधिकार दिया जाए। फिल्म का फर्स्ट हाफ थोड़ा लंबा लगता है, मगर सेकंड हाफ में कहानी अपनी मंजिल की ओर सरपट दौड़ती है। अश्विनी ने मानवीय रिश्तों की बुनावट के साथ कबड्डी जैसे खेल के थ्रिल को भी बनाए रखा है। निखिल मल्होत्रा और अश्विनी अय्यर तिवारी के लिखे संवाद चुटीले हैं। जय पटेल की सिनेमटॉग्रफी दर्शनीय है और बल्लू सलूजा ने फिल्म को सही अंदाज में काटा है। शंकर-एहसान-लॉय का संगीत विषय के अनुरूप है।



जया निगम के किरदार को कंगना ने एफर्टलेस और फ्लॉलेस होकर जिया है। उनका पहनावा हो या बॉडी लैंग्वेज, हर पहलू उनके चरित्र को संस्मरणीय बनाता है। जज्बाती दृश्यों में कंगना ने मेलोड्रामा करने के बजाय उसे इस टीस के साथ जिया है कि आपकी आंखें नम हुए बिना नहीं रह पातीं। हाउसवाइफ और कबड्डी प्लेयर दोनों ही पहलुओं को उन्होंने खूब जिया है। रिचा चड्ढा का अभिनय फिल्म में राहत का काम करता है। बिहारी एक्सेंट में बोले गए उनके संवाद और बॉडी लैंग्वेज भरपूर मनोरंजन करते हैं। उनके और कंगना के बीच के दृश्यों की केमिस्ट्री देखते बनती है। सहयोगी पति की भूमिका में जस्सी गिल ने सहज अभिनय किया है। कंगना के साथ उनकी जोड़ी अच्छी लगती है।


सीमित दृश्यों के बावजूद नीना गुप्ता अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं। बाल कलाकार यज्ञ भसीन फिल्म का आकर्षण साबित हुए हैं। अपने मासूम अभिनय से वे सभी का मन मोह लेते हैं।

क्यों देखें: इस फिल्म को मिस न करें, ये आपको हौसला देगी अपने सपनों को पुनर्जीवित करने का।

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स्ट्रीट डांसर 3डी

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रेमो डिसूजा की 'स्ट्रीट डांसर 3 डी' को अगर डांस की विजुअल ट्रीट कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इस तरह की कोरियॉग्रफी और हैरतअंगेज डांस स्टेप्स हमने अब तक बॉलिवुड की फिल्मों में नहीं देखे हैं, मगर जितनी अथक मेहनत रेमो ने डांस के क्राफ्ट पर की, उतनी ही अगर वह कहानी पर करते तो यह हिंदी सिनेमा की एक नायाब डांस मूवी बन सकती थी।

कहानी लंदन बेस्ड है। जहां सहज (वरुण धवन) और इनायत (श्रद्धा कपूर) के अपने-अपने डांस ग्रुप हैं। पाकिस्तानी इनायत के डांस ग्रुप का नाम रूल ब्रेकर्स है, जबकि सहज स्ट्रीट डांसर नामक ग्रुप का कर्ता-धर्ता है। ये दोनों ग्रुप एक-दूसरे के कड़े प्रतिद्वंद्वी हैं और एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका जाने नहीं देते। वहीं लंदन का एक बहुत ही माहिर डांस ग्रुप 'राइट रॉयल' है, जिसके सभी डांसर्स नंबर वन हैं और उसी ग्रुप में सहज की गर्लफ्रेंड (नोरा फतेही) है। इन ग्रुप्स को जब पता चलता है कि वहां दुनिया का सबसे बड़ा डांस कॉम्पिटिशन होने जा रहा है, तो वे सभी अपने-अपने मकसद के लिए उसे किसी भी कीमत पर जीतना चाहते हैं। असल में उस डांस कॉम्पिटिशन की प्राइज मनी बहुत ज्यादा है। इनायात उन पैसों से दयनीय अवस्था में रहने वाले इंडिया-पाकिस्तान के अप्रवासी लोगों को अपने देश वापस भेजना चाहती है, जबकि सहज इस कॉम्पिटिशन को जीतकर अपने भाई का सपना पूरा करना चाहता है। नाइटक्लब का ओनर अन्ना (प्रभुदेवा) चाहता है कि सहज और इनायत एक टीम बनकर इस डांस कॉम्पिटिशन में भाग लें।



इसमें कोई शक नहीं की निर्देशक रेमो डिसूजा की यह फिल्म डांस के मामले में उनकी पिछली डांस ओरिएंटेड फिल्म 'एबीसीडी 2' से मीलों आगे है। यहां वह डांस को एक अलग स्तर पर ले जाने में सफल रहे हैं। उन्होंने पॉप, जैज, कॉन्टेम्प्ररी, एफ्रो, लिकिंग एन्ड पॉपिंग जैसे तमाम डांस फॉर्म्स को खूबसूरती से पिरोया है। डांस के दीवाने फिल्म को पल-पल इंजॉय करेंगे, मगर फिल्म की कहानी दर्शक से अपना रिश्ता बनाने में नाकाम रहती है। फिल्म 3डी में है और डांस सीक्वेंस को छोड़कर 3डी इफेक्ट्स का औचित्य फिल्म में नजर नहीं आता।


फिल्म में परिवार, देशभक्ति, समाज सेवा, चैरिटी, इंडिया-पाकिस्तान, डांस, राइवलरी जैसे अनेकों मुद्दों को ठूंसा गया है और उसमें कोई भी मुद्दा मजबूती से उभर नहीं पाया है। फिल्म के कई संवाद सुपरफिशल लगते हैं। विजय कुमार अरोड़ा की सिनेमटॉग्रफी में दम है, मगर फिल्म की लंबाई थोड़ी खलती है। डांस पर आधारित फिल्म होने के नाते बहुत सारे डांस आइटम रखे गए हैं, जो कहानी में अवरोध पैदा करते हैं। संगीत के मामले में भी फिल्म आगे है। प्रभुदेवा को मुकाबला के रीमिक्स में नाचते देख आप मोहित हुए बिना नहीं रहते।



सहज के रोल में वरुण की ईमानदार परफॉर्मेंस पर्दे पर साफ नजर आती है। डांस में उनकी मेहनत भी खूब झलकती है, वहीं श्रद्धा ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है और डांस के स्टेप्स में वे उन्नीस साबित नहीं हुई हैं। नोरा फतेही को भले कम स्क्रीन स्पेस मिला हो, मगर अपने डांस नंबर में वे जान डाल देती हैं। प्रभुदेवा की भूमिका भी छोटी है, मगर उनका डांस नंबर 'मुकाबला' टोटल पैसा वसूल है।


अपारशक्ति खुराना ने अपनी भूमिका में प्रभावी रहे हैं। डांसर्स से ऐक्टर्स बने पुनीत पाठक, धर्मेश, सलमान युसुफ, राघव आदि ने अच्छा काम किया है। क्लाईमैक्स डांस मुकाबले में इनका जलवा देखने योग्य है।

क्यों देखें: डांस के दीवाने इस फिल्म को जरूर इंजॉय कर सकते।

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बैड बॉयज फॉर लाइफ

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'बैड बॉयज' के रूप में ढाई दशक पहले स्क्रीन पर धमाका करने वाले जाबांज पुलिसवालों माइक लॉउरी (विल स्मिथ) और मार्कस ब्रुनेट (मार्टिन लॉरेंस) की जोड़ी साल 2003 में आयी 'बैड बॉयज 2' के 17 साल बाद एक बार फिर 'बैड बॉयज फॉर लाइफ' में लौट आई है। उम्र बढ़ने के साथ ये बैड बॉयज दुश्मन के छक्के छुड़ाने में अब पहले जैसे धारदार भले न रहे हों, लेकिन उनकी दोस्ती और गहरी और शानदार हो गई है, जो इस फिल्म की जान है।

कहानी: फिल्म का आगाज बैड बॉयज के चिरपरिचित अंदाज में होता है, जहां माइक और मार्कस मियामी की सड़कों पर चमचमाती पोर्श को भगाए जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे किसी मिशन पर है, लेकिन कार रुकने पर वे एक हॉस्पिटल में होते हैं, जहां मार्कस नाना बन चुका होता है। मार्कस अब रिटायरमेंट लेकर परिवार के साथ जिंदगी बिताना चाहता है, जबकि माइक चाहता है कि वे दोनों हमेशा बैड बॉयज बने रहें। इधर, खतरनाक कैदी इजाबेल अरेटस (केट डी कस्टीलो) अपने बेटे अरमांडो (जेकब स्किपियो) की मदद से जेल से फरार हो जाती है और अपने ड्रग माफिया पति की मौत के जिम्मेदार सभी लोगों को मारने का फरमान सुनाती है, जिसमें माइक भी शामिल है। अरमांडो माइक पर हमला कर देता है। हमले में जख्मी माइक 6 महीने अस्पताल में रहता है, वहीं अरमांडो एक-एक कर अपने दुश्मनों को खत्म करता जाता है। कैप्टन कोनार्ड हॉवर्ड (जो पैंटोलियानो) केस की कमान रीटा (पाउला नुनेज) और उनकी स्पेशल टीम एम्मो को सौंपते हैं। जबकि, ठीक होने के बाद माइक खुद अपराधी को पकड़ना चाहता है, लेकिन रिटायर्ड मार्कस उसका साथ देने के लिए तैयार नहीं होता। एक मौका ऐसा ही आता है, जब माइक निराश हो जाता है, लेकिन तभी कैप्टन का भी मर्डर हो जाता है, जिसके बाद मार्कस एक आखिरी बार वापस बैड बॉयज अवतार में माइक का साथ देने को तैयार हो जाता है और फिर शुरू होता है रोमांचक खुलासों और जबरदस्त ऐक्शन का सिलसिला।

रिव्यू: आदिल अल अरबी और बिलाल फलाह निर्देशित यह फिल्म शुरू में थोड़ी स्लो है, लेकिन बाद में गति पकड़ लेती है। एक बारगी सामान्य सी लगने वाली कहानी का क्लाइमैक्स भी काफी रोचक निकलता है। यही नहीं, निर्देशक ने सूझबूझ के साथ इसकी अगली कड़ी की गुंजाइश भी छोड़ दी है। फिल्म के वन लाइनर्स चुटीले हैं, जो आपको हंसाते हैं। माइक और एम्मो की टीम की नोकझोंक भी अच्छी लगती है। ऐक्शन की बात करें, तो आखिरी ऐक्शन सीक्वेंस ही आकर्षक है, बाकी खून-खराबा ज्यादा है। विल स्मिथ और मार्टिन लॉरेंस की केमिस्ट्री फिल्म का प्लस पॉइंट है। निर्देशक ने इस बात का ध्यान रखा है कि ये ऐक्टर्स अब पहले की तरह नौजवान नहीं रहे, तो इस बात को लेकर कई पंच हैं, जो सटीक और अच्छे लगते हैं। दोनों की ऐक्टिंग भी बढ़िया है। वहीं, जो पैंटोलियानो, पाउला नुनेज, जेकब स्किपियो और केट डी कस्टीलो ने भी अपनी किरदार के साथ पूरा न्याय किया है।

क्यों देखें: विल स्मिथ और मार्टिन लॉरेंस की जबरदस्त केमिस्ट्री और जोरदार ऐक्शन के लिए देख सकते हैं।

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जवानी जानेमन

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नितिन कक्कर के डायरेक्शन में बनी 'जवानी जानेमन' समाज में रिश्तों के बदलते पैमानों की कहानी है। आप इसे यूथ सेंट्रिक फिल्म कह सकते हैं। रिश्तों का जो मॉडर्न रूप इस फिल्म में नजर आता है, उसे जस्टिफाइ करने के लिए निर्देशक ने स्वदेशी किरदारों के साथ विदेशी पृष्ठभूमि को चुनने की समझदारी दिखाई है।

कहानी: 40 साल का जसविंदर सिंह उर्फ जैज (सैफ अली खान) मूल रूप से कमिटमेंट से दूर भागनेवाला दिलफेंक शख्स है। वह शादी, बाल-बच्चे और उसकी जिम्मेदारी को अपनी आजादी का सबसे बड़ा रोड़ा मानता है। यही वजह है कि माता-पिता और भाई-भाभी के होने के बावजूद वह अकेला रहता है। ब्रोकर का काम करनेवाले जैज का काफी वक्त क्लब में शराब पीकर नई-नई लड़कियों के साथ रात गुजारने में बीतता है। वह अपनी जिंदगी में हर तरह से मस्त है, मगर तभी उसके जीवन में 21 साल की टिया (अलाया फर्नीचरवाला) नाम की लड़की आती है। दूसरी लड़कियों की तरह वह टिया के साथ भी फ्लर्ट करना चाहता है, मगर उस वक्त उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है, जब उसे पता चलता है कि टिया उसकी बेटी है और वह भी बिना शादी के प्रेग्नेंट है। जिम्मेदारी से भागने के लिए वह टिया से पीछा छुड़ाने की कोशिश करता है, तो क्या एक बार फिर जैज के अतीत का पुनरावर्तन होगा? जिस तरह वह बाप बनने की जिम्मेदारी से भाग आया था, क्या अब अपनी बेटी और उसके होनेवाले बच्चे से मुंह मोड़ लेगा? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

रिव्यू: 'फिल्मिस्तान' और 'मित्रों' जैसी फिल्मों का निर्देशन कर चुके नितिन कक्कर की कहानी भले आधुनिक है, मगर उसमें नयापन है। किरदारों को स्थापित करने में वक्त जाया किए बगैर वे सीधे कहानी के मुख्य बिंदु पर आ जाते हैं। फर्स्ट हाफ में कहानी तेजी से भागती है, मगर सेकंड हाफ में इंटरवल के बाद कहानी डल हो जाती है। हालांकि नए किरदारों के आने से थोड़ी ताजगी जरूर आती है। फिल्म कई हिस्सों में हंसाने में कामयाब रहती है। क्लाईमैक्स प्रेडिक्टिबल लगता है, मगर शुक्र है कि उसमें मेलोड्रामा नजर नहीं आता। किरदार सही-गलत होने के पचड़े में पड़े बगैर कहानी के प्रवाह में बहते नजर आते हैं। फिल्म में कई संगीतकार हैं, मगर संगीत औसत ही बन पाया है।

सैफ अली खान का स्वैग, बॉडी लैंग्वेज, अभिनय, एनर्जी और इमोशन जैज के किरदार को यादगार बनाता है। इसमें कोई शक नहीं कि इस तरह के अरबन चरित्रों में वह परफेक्ट लगते हैं। इस रोल में वह अपने समर्थ अभिनेता होने का परिचय देते हैं। अलाया फर्नीचरवाला की यह पहली फिल्म है, मगर उन्होंने अपनी भूमिका को बहुत ही सहजता और खूबसूरती से जिया है। उनमें एक अच्छी अभिनेत्री की तमाम संभावनाएं हैं। तब्बू अपनी छोटी-सी भूमिका में मनोरंजन करती हैं, मगर उन जैसी सशक्त अभिनेत्री को और ज्यादा स्क्रीन स्पेस मिलना चाहिए था। सैफ की दोस्त रिया के रूप में कुब्रा सेत ने दमदार ऐक्टिंग की है। सहयोगी किरदारों में कुमुद मिश्रा ने अच्छा काम किया है। चंकी पांडे, फरीदा जलाल जैसे कलाकार ठीक-ठाक रहे हैं।

क्यों देखें: आधुनिक कहानी के शौकीन और सैफ अली खान के दमदार अभिनय के लिए यह फिल्म देखी जा सकती है।

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गुल मकई

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पल्लबी डे पुरकायस्थ
पाकिस्तानी सोशल ऐक्टिविस्ट और नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफजई के जीवन पर यह फिल्म 'गुल मकई' बनाई गई है। इसका निर्देशन एच.ई. अमजद खान ने किया है। मलाला पर बनी इस फिल्म का फैंस को बेसब्री से इंतजार था।

कहानी: 'गुल मकई' की कहानी पाकिस्तानी नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफ़ज़ई के जीवन और संघर्ष को चित्रित किया है। कहानी की शुरुआत पाकिस्तान की स्वात घाटी से होती है। यहां तालिबानी दशहगर्दों ने अपने हिसाब से सच्चे मुसलमान होने की परिभाषा लोगों के सामने रखी है। स्वात में कब्जा किए ये आतंकी महिलाओं की पढ़ाई के खिलाफ हैं। उन्होंने महिलाओं पर कई तरह की पाबंदियां लगाई हुई हैं। बच्चियां पढ़ने ना जा पाएं इसलिए घाटी के कई स्कूल जला रखे हैं। उधर, मलाला के पिता जियाउद्दीन यूसुफजई, जिनकी भूमिका अतुल कुलकर्णी निभा रहे हैं, एक स्कूल में प्रिंसिपल हैं। यहां लगातार गोलीबारी और बम धमाकों की आवाज ने मलाला (रीम शेख) को परेशान कर रखा है। स्कूल बंद होने से भी वह बेहद परेशान है। मलाला को आतंकियों की दरिंदगी के सपने आते हैं। इसके बाद मलाला और उसके पिता तय करते हैं कि वे इन आतंकियों के खिलाफ आवाज उठाएंगे।

इसके बाद दोनों मीडिया के जरिए आतंकियों को साधने की कोशिश करते हैं। इस बीच मलाला लड़कियों की पढ़ाई के लिए संघर्ष शुरू कर दे ही। कहानी आगे बढ़ती है और मलाला के इस प्रयास के बाद उन्हें आतंकियों की तरफ से धमकियां मिलने लगती हैं। पर, मलाला नहीं मानतीं। एक दिन आतंकी उन्हें गोली मार देते हैं। हालांकि मलाला उससे बच जाती हैं और उनके नेक इरादे की जीत होती है।

रिव्यू: अहमद खान ने विषय तो काफी अच्छा चुना लेकिन इसके साथ न्याय नहीं कर पाए हैं। जिन परिस्थितियों में मलाला ने लड़ाई लड़ी, उसे पर्दे पर दिखा पाने और उसके जज्बातों को सही से उकेर पाने में निर्देशक पूरी तरह विफल रहे हैं। शायद यही वजह है कि दिव्या दत्ता, अतुल कुलकर्णी जैसे कलाकारों से भी वह बेहतर काम नहीं निकलवा पाए हैं। रीमा शेख भी मलाला के किरदार के साथ न्याय नहीं कर पातीं। उन जगहों पर जहां मलाला का संघर्ष और आतंकियों से उनकी लड़ाई सामने आती है, वहां रीम वह भाव और जज्बात जाहिर करने में विफल दिखती हैं।

बैकग्राउंड स्कोर भी अच्छा नहीं है। इस कारण फिल्म और बोझिल लगती है। यह काफी निराशाजनक है कि फिल्म में किसी भी तरह के विवादों का उल्लेख नहीं किया गया है। जबकि मलाला के जीवन से बातें जुड़ी रही हैं और ऐसा लगता है कि कई तथ्य मिसिंग हैं। कुल मिलाकर कहें तो 'गुल मकई' अपने विषय के कारण एक शानदार फिल्म हो सकती थी। लेकिन फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो जिसके कारण इसे एक बेहतर फिल्म की सूची में शामिल किया जाए। एक बेहतर फिल्म साधारण फिल्म बनकर रह गई है।

क्यों देखें: नोबल शांति पुरस्कार विजेता मलाला यूसुफ़ज़ई के जीवन के बारे में जानना चाहते हैं तो एक बार इसे देख सकते हैं।

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हैपी हार्डी ऐंड हीर

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'हैपी हार्डी ऐंड हीर' बतौर ऐक्टर हिमेश रेशमिया की यह दसवीं फिल्म है। कलाकार के रूप में अपनी खूबियों-खामियों को जानते हुए उन्होंने खुद को दमदार संगीत के साथ डबल रोल में पेश किया है। परदे पर उन्हें दोहरी भूमिका में देखकर यह अंदाजा हो जाता है कि उन्होंने अपने अभिनय पक्ष पर कड़ी मेहनत की है।

कहानी: हैपी बचपन से ही लूजर के रूप में जाना जाता है, मगर कमाल की बात यह है कि वह अपने लूजर होने को भी सेलिब्रेट करता है। उसके बचपन का प्यार हीर उसके इस रवैये से चिढ़ती है, मगर वह हैपी को अपना सबसे करीबी दोस्त मानती है। बचपन से लेकर जवानी की दहलीज पर कदम रखते हुए हैपी (हिमेश रेशमिया) ने प्यार सिर्फ हीर (सोनिया मान) से किया, मगर वह कभी उसे अपने दिल की बात कह नहीं पाया। अचीवर्स को पसंद करनेवाली हीर की जिंदगी में एक दिलचस्प मोड़ तब आता है, जब हैपी उससे नाराज होकर कुछ कर दिखाने की जिद से हीर से दूर हो जाता है और उसी बीच हीर की जिंदगी में कामयाब और अचीवर कहलाने वाले लोकप्रिय गायक और बिजनसमैन हार्डी (हिमेश रेशमिया) की एंट्री होती है। हार्डी हीर को चाहने लगता है और हीर भी। दोनों की चाहत अभी परवान चढ़ ही रही होती है कि एक ऐसा हादसा होता है, जहां हीर दोराहे पर आकर खड़ी हो जाती है। उसे अब लूजर और अचीवर में से किसी एक को चुनना है? वह किसे चुनेगी? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।

रिव्यू: निर्देशक राका ने कहानी में प्यार और फ्रेंड जोन जैसे कश्मकश को दर्शाया है। इसे आप रोमांटिक फैमिली फिल्म कह सकते हैं, जो 90 के दशक की फिल्मों की याद दिलाती है। राका अगर सीक्वेंसेज में थोड़ा ड्रामा और थ्रिल ऐड कर पाते तो कहानी दमदार हो सकती थी, क्योंकि कई जगहों पर यह सपाट लगने लगती है, मगर वह लंदन की खूबसूरती को दर्शाने में कामयाब रहे हैं। चंदन कोवली की सिनेमटॉग्रफी आकर्षक है। फिल्म का स्क्रीनप्ले चुस्त हो सकता था।

अभिनेता के रूप में हिमेश ग्रो हुए हैं। परदे पर उन्हें देखना अटपटा नहीं लगता। उन्होंने अपने लिए सहज-सिंपल रोल चुने, जिन्हें वह निभा ले गए हैं। सोनिया मान अपने किरदार में क्यूट और खूबसूरत लगी हैं। सहयोगी कास्ट ठीक-ठाक है। संगीत फिल्म का सबसे सशक्त पहलू है। हिमेश रेशमिया के संगीत में तकरीबन सभी गाने पसंद किए जा रहे हैं। हिमेश रेशमिया और रानू मंडल का गाया हुआ 'तेरी मेरी कहानी' को म्यूजिक लवर्स ने काफी पसंद किया है। 'क्यूई पाई', 'लुटेरी', 'आशिकी में तेरी' और 'आ आ आशिकी में तेरी 2.0' भी संगीत प्रेमियों को भा रहा है।

क्यों देखें: दमदार म्यूजिक और हिमेश रेशमिया के फैंस यह फिल्म देख सकते हैं।

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