कम बजट में ज्यादातर मंझे हुए स्टार्स को लेकर बनी जय हो डेमोक्रेसी जाने भी दो यारो फेम रंजीत कपूर की लिखी और उन्हीं के निर्देशन में बनी यह फिल्म। छत्तीसगढ़ में आयोजित पहले अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की ओपनिंग में यहां मौजूद दर्शकों और स्टेट के सीएम को फिल्म इस कदर पसंद आई कि उन्होंने शो खत्म होते ही यह फिल्म टैक्स फ्री कर दी। इस फिल्म के माध्यम से डायरेक्टर ने कॉमिडी का सहारा लेकर यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे लोकतांत्रिक देश में हमारे नेता बड़ी से बड़ी राष्ट्रीय विपदा के वक्त भी अपनी वोट बैंक और सत्ता की राजनीति के बीच कैद रहते हैं। भारत-पाकिस्तान सीमा पर घटी एक छोटी सी घटना को हमारे नेता और खोजी टीवी चैनल वाले कैसे राई का पहाड़ बना देते है , इसे फिल्म की शुरूआत में तो मजेदार ढंग से पेश किया गया, लेकिन चंद मिनट बाद फिल्म ऐसे ट्रैक पर चलती नजर आती है जहां उसकी सीन दर सीन रफ़्तार लगातार घटती जाती है। बेशक, फिल्म की कहानी को एक बेवकूफी भरी घटना के माध्यम से काल्पनिक एंगल दिया गया है, लेकिन न जाने क्यों डायरेक्टर साहब की कहानी और किरदारों पर वैसी पकड़ इंटरवल के बाद तो बिल्कुल नजर नहीं आती जो शुरुआती पंद्रह मिनट में नजर आती है।
कहानी : भारत-पाक सीमा पर बनी एलओसी रेखा के बीचोबीच एक मुर्गी के आ जाने से दोनों देशों की सैनाओं के बीच जंग जैसे हालात बन जाते हैं। पाकिस्तानी सैनिकों को लगता है मुर्गी अगर उनके अपने देश की है तो उसे हर सूरत में बचाना है, लेकिन अगर दुश्मन मुल्क की है तो उसका क्या किया जाए, यह बताने की जरूरत नहीं। दूसरी ओर भारतीय सीमा पर भी हालात कुछ ऐसे ही है। मुर्गी को दुश्मन देश के सैनिक ले जाए यह सेना के अफसरों का हर्गिज गवारा नहीं। मुर्गी को लाने के मकसद से भारतीय सेना के अफसर अपने एक रसोइये को एलओसी में जबरन धकेल देते है, जहां उसका स्वागत दुश्मन देश की ओर से आ रही गोलियां करती है। किसी तरह से यह न्यूज एक खबरिया चैनल को मिल जाती है और झट न्यूज चैनल ब्रेकिंग न्यूज बनकर पेश करते हैं। सीमा पर जंग जैसे हालात की खबर दिल्ली बैठै मंत्रियों तक पहुंचती है। रक्षा मंत्री महोदया को कोई फैसला लेना नहीं आता इसलिए इस मसले को हल करने के लिए एक समिति का गठन किया जाता है जो संविधान के नियमों के मुताबिक अपनी रिर्पोट जल्दी से जल्दी दे। इस संसदीय कमिटी में कृपाशंकर पाण्डेय (ओम पुरी),रामलिंगम (अन्नू कपूर), हरफूल सिंह चौधरी (सतीश कौशिक), मोहिनी देवी (सीमा बिस्वास),मेजर बरुआ (आदिल हुसैन),मिसेज बेदी (रजनी गुजराल) शामिल हैं। आखिर तक इस कमिटी की बैठक चलती है जो पहले तो आपको हंसाती है, लेकिन बाद में पकाती है।
ऐक्टिंग : फिल्म में कई मंझे हुए दिग्गज कलाकार हैं। अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो लगता है कि हर कोई एक-दूसरे को ओवर ऐक्टिंग करने के मामले में पीछे करने की कसम खाकर ही ऐक्टिंग कर रहा थहै। सीमा बिश्वास का किरदार बंगाल की सीएम ममता दीदी की याद दिलाता है, लेकिन अगर ऐक्टिंग की बात की जाए तो सीमा इस रोल में अनफिट हैं। कुछ यही हाल सतीश कौशिक और अनु कपूर का भी है, जो अपने रोल में ऐक्टिंग करने से ज्यादा शोर मचाते नजर आए।
निर्देशन : कसी हुई दमदार शुरुआत के बाद रंजीत की कहानी और किरदारों पर पकड़ लगातार कम होती गई और आखिरी बीस मिनट की फिल्म तो दर्शकों के सब्र का इम्तिहान लेती है।, हां बरसों से सीमा पर दो पड़ोसी देशों यानी भारत-पाक के बीच की आपसी कटुता और नफरत को रंजीत ने कुछ अलग एंगल से पेश करने की कोशिश की है। बेशक फिल्म का क्लाइमैक्स टोटली काल्पनिक है, लेकिन दिल से यही आवाज आती है काश ऐसा हो पाए । अफसोस, रंजीत इस जज्बे को भी असरदार ढंग से पेश नहीं कर पाए।
संगीत : फिल्म के क्लाइमैक्स में एक गाना है जो स्क्रीन पर देखने और सुनने में लाजवाब है, लेकिन हॉल से बाहर आने के बाद आपको गाने के बोल शायद ही याद रह पाए।
क्यों देखें: अगर आप अनु कपूर, ओम पुरी, सतीश कौशिक या बैडिंट क्वीन सीमा बिश्वास के फैन हैं तो एकबार देख सकते हैं, वर्ना फिल्म में ऐसा कुछ खास नहीं जो इस फिल्म को देखने की आपसे सिफारिश की जाए।
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