कहानी: 'छलांग' की कहानी एक युवा पीटी टीचर की है। उसे स्कूल में नए कोच से जबरदस्त कंपीटिशन मिलता है। दिलचस्प है यह चुनौती न सिर्फ नौकरी की है, बल्कि छोकरी यानी लव लाइफ को लेकर भी है। लेकिन आत्मसम्मान और अपने प्यार के लिए वह टीचर लड़ता है।
समीक्षा: महिंदर सिंह उर्फ मोंटू (राजकुमार राव) थोड़ा आलसी, थोड़ा कामचोर है। सूरज सिर पर चढ़ जाए तब उसकी नींद खुलती है। मोंटू का अपने जीवन में बहुत ज्यादा उद्देश्य या लक्ष्य नहीं है। वह मास्टरजी (सौरभ शुक्ला) के साथ घूमता है। स्कूल में एक पीटी टीचर की नौकरी में वह सुपर कॉंफिडेंट है। यह नौकरी उसे सिर्फ इसलिए मिली है कि उसके पिता (सतीश कौशिक) ने प्रिंसिपल (ईला अरुण) से उसकी सिफारिश की थी। अब मोंटू के जीवन में दो ही काम हैं। एक मास्टरजी के आगे-पीछे घूमना, दूसरा लोगों को नैतिकता की सीख देना। वह वेलेंटाइन डे पर कपल्स को पकड़ता है और उन्हें सजा सुनाता है। एक दिन अपनी तथाकथित मॉरल पुलिसिंग के चक्कर में वह एक अधेड़ दंपति को परेशान करता है, यह सोचकर कि वे बस बेवकूफ बना रहे हैं। यहां तक कि एक स्थानीय अखबार में उनकी तस्वीर छपवाकर उन्हें शर्मिंदा भी करता है। लेकिन कहानी पलटती है।
इस अधेड़ दंपति की एक बेटी है नीलिमा उर्फ नीलू (नुसरल भरूचा), जो संयोग से उसी स्कूल में कंप्यूटर टीचर बनकर आती है, जिसमें अपना मोंटू पीटी टीचर है। मोंटू को पहली नजर में पहला प्यार हो जाता है। जाहिर तौर पर नीलू इस पीटी टीचर मोंटू की हरकतों के कारण खफा है। यहीं प्यार की पहली सीढ़ी यानी नफरत की शुरुआत होती है। लेकिन कहानी में असली ट्विस्ट तब आता है, जब स्कूल में एक नए पीटी टीचर की एंट्री होती है। नाम है आईएम सिंह (जीशान अयूब)। यह नया पीटी टीचर रॉयल एनफील्ड की सवारी लगता है। मोंटू से हर चीज में बेहतर है, इसलिए मोंटू की नौकरी और छोकरी दोनों पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं।
मोंटू को एहसास होता है उसे कोई गेम खेलना होगा, ताकि इस नए पीटी टीचर को सीन से हटा सके। दोनों के बीच युद्ध छिड़ जाता है। दोनों एक-दूसरे को हराने की खुलेआम चुनौती दे डालते हैं। अब यहां से हंसी मजाक की यह पूरी कहानी खेल-कूद वाली कहानी में बदल जाती है। 'छलांग' की कहानी लव रंजन, असीम रोड़ा और जीशान कादरी ने लिखी है। लेकिन दिलचस्प है कि तीनों ने ही इसे स्पोर्ट्स फिल्म बनाने की नहीं सोची। न ही इसे एक प्यारी सी लव स्टोरी का रूप दिया। फिल्म सिर्फ लव ट्राएंगल के आइडिया को छूती और छूकर निकल जाती है।
फिल्म के सेकेंड हाफ में कहानी थोड़ी मजेदार बनती है। हर दूसरे स्पोर्ट्स फिल्म की तरह 'छलांग' में एक जोशीला गाना है, जिसे दलेर मेहंदी साहब ने गाया है। कुछ फिजिकल ट्रेनिंग और फिनाले में जीत की तैयारियों वाले सीन हैं। अब चक्कर ये है कि फिल्म में जो खिलाड़ी हैं, उनके बारे में बतौर दर्शक हम बहुत नहीं जानते और न ही इसे बताने पर समय दिया गया है। कैरेक्टर्स को उभारने की जगह लिंगभेद, समानता और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर फोकस किया गया है। ये सारी चीजें ऐसी जान पड़ती हैं, जैसे जबरन सामने रख दी गई हों।
संगीत पक्ष की बात करें तो यहां भी कुछ ऐसा नहीं है जो आप में जोश पैदा करे। फिल्म का सबसे अच्छ गाना 'खैर नी करदा' भी अंत में क्रेडिट से पहले आता है। ऐक्टिंग की बात करें तो राजकुमार राव ने एक आलसी और लक्ष्यहीन पीटी टीचर की भूमिका को बखूबी निभाया है। लेकिन एक छोटे शहर के लड़के की उनकी अदायगी अब दोहराव लेकर आती है। वह पहले भी ऐसे रोल कर चुके हैं। शायद इसलिए भी कि बॉलिवुड में ग्रामीण इलाकों की कहानियों का जोर है। हालांकि, ग्रामीण परिवेश में उनका सजा-धजा और कभी खराब नहीं होने वाला हेयरस्टाइल थोड़ा लगता है। आलम यह है कि जब खेल में मैदान वह गिरते हैं, धूल फांकते हैं तब भी उनके बाल एकदम सजे-धजे नजर आते हैं।
जीशान अयूब अपने एथलिटिक अवतार में जंचे हैं। उनकी मूंछ और उनका अंदाज रौबदार है। नुसरत भरूचा के लिए भी ऐसा ही है। वह फिल्म में नए जमाने की तरक्की पसंद लड़की है। इन सभी में जो कैरेक्टर सबसे ज्यादा प्रभावित करता है वह है सौरभ शुक्ला का। ईला अरुण और सतीश कौशिक ने भी बढ़िया काम किया है। मोंटू की मां के किरदार में बलजिंदर कौर भी अलग से ध्यान खींचती हैं।
कुल मिलाकर डायरेक्टर हंसल मेहता ने इस फिल्म में सबकुछ विस्तार से दिखाने और सही दिशा में ले जाने की कोशिश की है। लेकिन कहानी से लेकर स्क्रीनप्ले और फिर इसे पर्दे पर उतारने में थोड़ी और मेहनत होनी चाहिए थी। यदि ऐसा होता तो फिल्म ज्यादा अच्छी और प्रभावी बनती।
समीक्षा: महिंदर सिंह उर्फ मोंटू (राजकुमार राव) थोड़ा आलसी, थोड़ा कामचोर है। सूरज सिर पर चढ़ जाए तब उसकी नींद खुलती है। मोंटू का अपने जीवन में बहुत ज्यादा उद्देश्य या लक्ष्य नहीं है। वह मास्टरजी (सौरभ शुक्ला) के साथ घूमता है। स्कूल में एक पीटी टीचर की नौकरी में वह सुपर कॉंफिडेंट है। यह नौकरी उसे सिर्फ इसलिए मिली है कि उसके पिता (सतीश कौशिक) ने प्रिंसिपल (ईला अरुण) से उसकी सिफारिश की थी। अब मोंटू के जीवन में दो ही काम हैं। एक मास्टरजी के आगे-पीछे घूमना, दूसरा लोगों को नैतिकता की सीख देना। वह वेलेंटाइन डे पर कपल्स को पकड़ता है और उन्हें सजा सुनाता है। एक दिन अपनी तथाकथित मॉरल पुलिसिंग के चक्कर में वह एक अधेड़ दंपति को परेशान करता है, यह सोचकर कि वे बस बेवकूफ बना रहे हैं। यहां तक कि एक स्थानीय अखबार में उनकी तस्वीर छपवाकर उन्हें शर्मिंदा भी करता है। लेकिन कहानी पलटती है।
इस अधेड़ दंपति की एक बेटी है नीलिमा उर्फ नीलू (नुसरल भरूचा), जो संयोग से उसी स्कूल में कंप्यूटर टीचर बनकर आती है, जिसमें अपना मोंटू पीटी टीचर है। मोंटू को पहली नजर में पहला प्यार हो जाता है। जाहिर तौर पर नीलू इस पीटी टीचर मोंटू की हरकतों के कारण खफा है। यहीं प्यार की पहली सीढ़ी यानी नफरत की शुरुआत होती है। लेकिन कहानी में असली ट्विस्ट तब आता है, जब स्कूल में एक नए पीटी टीचर की एंट्री होती है। नाम है आईएम सिंह (जीशान अयूब)। यह नया पीटी टीचर रॉयल एनफील्ड की सवारी लगता है। मोंटू से हर चीज में बेहतर है, इसलिए मोंटू की नौकरी और छोकरी दोनों पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं।
मोंटू को एहसास होता है उसे कोई गेम खेलना होगा, ताकि इस नए पीटी टीचर को सीन से हटा सके। दोनों के बीच युद्ध छिड़ जाता है। दोनों एक-दूसरे को हराने की खुलेआम चुनौती दे डालते हैं। अब यहां से हंसी मजाक की यह पूरी कहानी खेल-कूद वाली कहानी में बदल जाती है। 'छलांग' की कहानी लव रंजन, असीम रोड़ा और जीशान कादरी ने लिखी है। लेकिन दिलचस्प है कि तीनों ने ही इसे स्पोर्ट्स फिल्म बनाने की नहीं सोची। न ही इसे एक प्यारी सी लव स्टोरी का रूप दिया। फिल्म सिर्फ लव ट्राएंगल के आइडिया को छूती और छूकर निकल जाती है।
फिल्म के सेकेंड हाफ में कहानी थोड़ी मजेदार बनती है। हर दूसरे स्पोर्ट्स फिल्म की तरह 'छलांग' में एक जोशीला गाना है, जिसे दलेर मेहंदी साहब ने गाया है। कुछ फिजिकल ट्रेनिंग और फिनाले में जीत की तैयारियों वाले सीन हैं। अब चक्कर ये है कि फिल्म में जो खिलाड़ी हैं, उनके बारे में बतौर दर्शक हम बहुत नहीं जानते और न ही इसे बताने पर समय दिया गया है। कैरेक्टर्स को उभारने की जगह लिंगभेद, समानता और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों पर फोकस किया गया है। ये सारी चीजें ऐसी जान पड़ती हैं, जैसे जबरन सामने रख दी गई हों।
संगीत पक्ष की बात करें तो यहां भी कुछ ऐसा नहीं है जो आप में जोश पैदा करे। फिल्म का सबसे अच्छ गाना 'खैर नी करदा' भी अंत में क्रेडिट से पहले आता है। ऐक्टिंग की बात करें तो राजकुमार राव ने एक आलसी और लक्ष्यहीन पीटी टीचर की भूमिका को बखूबी निभाया है। लेकिन एक छोटे शहर के लड़के की उनकी अदायगी अब दोहराव लेकर आती है। वह पहले भी ऐसे रोल कर चुके हैं। शायद इसलिए भी कि बॉलिवुड में ग्रामीण इलाकों की कहानियों का जोर है। हालांकि, ग्रामीण परिवेश में उनका सजा-धजा और कभी खराब नहीं होने वाला हेयरस्टाइल थोड़ा लगता है। आलम यह है कि जब खेल में मैदान वह गिरते हैं, धूल फांकते हैं तब भी उनके बाल एकदम सजे-धजे नजर आते हैं।
जीशान अयूब अपने एथलिटिक अवतार में जंचे हैं। उनकी मूंछ और उनका अंदाज रौबदार है। नुसरत भरूचा के लिए भी ऐसा ही है। वह फिल्म में नए जमाने की तरक्की पसंद लड़की है। इन सभी में जो कैरेक्टर सबसे ज्यादा प्रभावित करता है वह है सौरभ शुक्ला का। ईला अरुण और सतीश कौशिक ने भी बढ़िया काम किया है। मोंटू की मां के किरदार में बलजिंदर कौर भी अलग से ध्यान खींचती हैं।
कुल मिलाकर डायरेक्टर हंसल मेहता ने इस फिल्म में सबकुछ विस्तार से दिखाने और सही दिशा में ले जाने की कोशिश की है। लेकिन कहानी से लेकर स्क्रीनप्ले और फिर इसे पर्दे पर उतारने में थोड़ी और मेहनत होनी चाहिए थी। यदि ऐसा होता तो फिल्म ज्यादा अच्छी और प्रभावी बनती।
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